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वर्ष]
श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [४९ श्री मुंशीजीके ये विचार सुन कर मुझे बडा अकल्पित आनन्द हुआ । इनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा, सर्वविद्यास्पर्शिनी विद्वत्ता, अद्भुत कार्यप्रवणता, समर्थ संयोजनाशक्ति, सतत साहित्यानुराग और अपने साथियोंके साथ तादात्म्य साधनेकी अकृत्रिम तत्परता- आदि गुणोंको लक्ष्य कर मेरे मनमें विश्वास हुआ कि यदि ये इस तरह इस कार्यमें दत्तचित्त हो गये तो ऐसी संस्थाके निर्माणमें जरूर बहुत अच्छी सफलता मिल सकती है।
परन्तु, मैं तो अपना लक्ष्य 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' के पीछे स्थिर कर चुका था, इसलिये इस संस्थाके निर्माणमें श्री मुंशीजीको मैं अपनी कितनी सेवा दे सकूँगा इसका मुझे उस समय कोई खयाल नहीं था। सो मैंने उस समय तो कुछ सामान्य रूपसे अपनी परिस्थिति विदित कर, जिस तरह हो सकेगा उस तरह अपना यथायोग्य सहयोग देते रहनेकी इच्छा प्रदर्शित की । पण्डितजीको ठीक होने पर मैं इनको अहमदाबाद ले गया। वहां कुछ समय रह कर वे 'फिर बनारस हिंदु युनिवर्सिटीमें, अपने कार्यस्थान पर गये । श्री मुंशीजीके इस बीचमें मुझ पर कई पत्र आ चुके और शीघ्र ही मुझे बंबई आनेका इन्होंने आग्रह किया। चूंकि ग्रंथ मालाका कार्य भी बंबई में रहनेसे अधिक वेगसे होता रहेगा और साथमें श्री मुंशीजीको भी, नई संस्थाके निर्माणमें यथायोग्य अपना सहयोग दे सकूँगा, इस विचारसे मैंने बंबईको अपना मुख्य निवासस्थान बनानेका विचार किया। ___ अगष्ट ता. ३ को मैं बंबई पहुंचा और माटुंगामें किंग सर्कल पर एक मकान किराये पर रख कर, वहां रहना निश्चय किया। श्री मुंशीजीके साथ बैठ कर 'भारतीय विद्या भवन' की योजना तैयार की गई और उसका कार्यालय भी प्रारंभमें माटुंगा ही में खालसा कालेजमें स्थापित करना निर्णीत हुआ। मैंने यह सब अपनी प्रवृत्ति सिंघी. जीको ता. ६ सप्टेम्बरको एक विस्तृत पत्र लिख कर ज्ञात की । इसके उत्तरमें ता. १५. ९. ३८ को उन्होंने नीचे दिया हुआ वैसा ही विस्तृत पत्र मुझे लिखा।
Calcutta 15. 9. 38 श्रद्धेय श्री जिनविजयजी,
सविनय प्रणाम. आपका पत्र ता. ६ का यथासमय मिला. पढ़ कर आनन्दित हुवे । सिरीजके प्रकाशनके बारेमें पहले बनारसमें और अब बम्बईमें जो व्यवस्था आपने की और जिसका पूरा विवरण आपने लिखा सो मालूम हुवा। ठीक है. खर्च एक मुस्त कुछ ज्यादे भी लग जायगा मगर कुछ पुस्तकें जल्दी निकल जायगी तो अच्छा होगा। यहां भी कई स्कॉलर पूछते रहते हैं, कि और और पुस्तकें कब निकलेंगी? __ और माननीय मि. मुंशीजीकी संस्थाविषयक स्कीमकी पुस्तिका मिली। आपके पत्रसे भी पूरा विवरण ज्ञात हुवा । यह स्कीम बहुत ही सराहनीय है । ऐसे कामोंमें तो दिल तोड कर काम करनेवालोंकी आवश्यकता है। स्कीमकी योजना करना idialistic आदमीयोंके लिये कोई मुश्किल नहीं। रूपये भी प्रायः मिल जाया करते हैं। मगर कभी असफलता देखने में आती है तो एक तो उसमें काम करनेवालोंमें "प्राण' का अभाव और दूसरे ऐसे कामोंसे लाभ लेनेवालोंका अभाव । लेकिन इसमें आप और मुंशीजी जैसे उत्साही पुरुष जुट गये हैं इससे इसमें सफलता प्राप्त होना अवश्य है।
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