________________
२६ ] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति (तृतीय
वदिके रूप में उस कंबलको मैंने अपने सरपर चढ़ाया और बडे आदरसे उसको अपने पास रखा । आज भी वह कंबल उसी तरह सुरक्षित है और उन साधुपुरुषकी वह स्नेहपूर्ण स्मृतिकी मुझे वारंवार याद दिलाता रहता है ।
उदयपुर में उस सिलसिले में मुझे कोई महिना - डेढ महिना रहना पडा । वहाँसे फिर मुझे केशरियाजी जाना पडा और वहाँके शिलालेख आदि जितने ऐतिहासिक प्रमाण थे उन सबका संग्रह करना पडा । सिंघीजी और श्रीशान्तिविजयजी महाराज इस विषय में बहुत रस लेते थे और केशरियाजी तीर्थकी प्राचीनता आदिके विषय में वास्तविक जानकारी करनेके लिये बडे उत्सुक रहते थे । जब जब शान्तिविजयजी महाराजके पास जाना होता तब तब वे मेरी इतनी अधिक प्रशंसा करते थे कि जिसको सुनकर मुझे एक प्रकारसे संकोच ही नहीं पर अभाव तक भी हो जाता था। first वारंवार कहते कि 'देखो जिनविजयजीको किसी तरहका कोई कष्ट न होने पावे । इनके जाने-आनेका मोटर वगैरहका बराबर इन्तजाम रखा जावे' इत्यादि । केशरियाजीके शिलालेख वगैरह जब सब मैंने ले लिये और उनका सब वर्णन और अवलोकन आदि लिखकर एक रीपोर्टके रूपमें मैंने उसे तैयार किया तो उसकी एक नकल शान्ति विजयजी महाराजने लेकर अपने व्याख्यानके पूठेमें रख ली । केशरियाजी तीर्थके मामले के बारेमें जो कोई खास व्यक्ति उनके पास आता और कुछ बातें कहता तो उसे सुन कर वे पहले मुझसे बातचीत करते और उसका कैसा जवाब आदि देना चाहिये इस बारे में पूछ लेते । इतनी गाढ उनकी मेरे पर श्रद्धा हो गई थी । फिर तो और भी उनका प्रेम मुझपर बढ़ गया था और बहुतसी अपने अंतरंगकी बातें भी प्रसङ्गोपात्त मुझसे किया करते थे । उदयपुर में रहते समय उनका स्वास्थ्य कुछ खराब हो गया था और केशरियाजीका मामला भी सहजमें सुलझने जैसा दिखाई नहीं देता था इसलिये उन्होंने वहाँसे विहार कर देनेका विचार किया। उनकी इच्छा रही कि मैं कुछ दिन उनके साथ रहूँ पर मुझे शान्तिनिकेतन जानेकी और वहाँ पर "सिंघी जैन छात्रालय" आदिकी व्यवस्था करनेकी अनिवार्य आवश्यकता थी; इससे मैंने उस समय तो अपनी अशक्ति प्रदर्शित कर कुछ समय बाद उनकी सेवामें उपस्थित होनेकी इच्छा प्रदर्शित की और उनकी अनुमति लेकर मैं अहमदाबाद गया ।
वहाँसे फिर यथासमय जूनके महिनेमें शान्तिनिकेतन जाना हुआ और वहाँके कार्यकी व्यवस्थामें जुट जाना पडा । 'जैन छात्रालय' के बन्ध कर देनेका निर्णय कर लिया गया था, सो तदनुसार उसके व्यवहारको समेटने की व्यवस्था की जाने लगी । ग्रन्थमालाका काम चल ही रहा था । इस वर्ष 'विविधतीर्थकल्प ग्रंथ' छपकर तैयार हुआ और 'प्रबन्धकोष' समाप्तप्राय था । और कई नये ग्रंथोंकी प्रेसकापियां तैयार हो रही थीं ।
मेरा कुछ समय बंबई में निवास
दीवाली के अवसर पर मैं फिर अहमदाबाद चला आया और फिर वहांसे दो'तीन महिने बंबई आ कर रहा । ग्रंथमालाकी छपाईंका काम बंबईके निर्णयसागर प्रेस में ही प्रधानतया चल रहा था और प्रुफ वगैरहके बहारसे आने जाने में बहुत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org