________________
वर्ष ]
श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [४१ फिर उन नवागंतुक भक्तोंको मेरा परिचय देना शुरू किया और कहने लगे 'जानते हो ये कौन हैं ? बडे भारी विद्वान् हैं, जैन इतिहासका जाननेवाला इनके जैसा और कोई नहीं है' इत्यादि । पर मैं वहांसे एकदम सटक कर अपने डेरे पर आ पहुंचा।
कुछ देर बाद सिंधीजी भी आ गये । मैंने कहा 'गुरुमहाराज बहुत ही प्रशंसा करते हैं, जिसे सुन कर मैं तो एक प्रकारसे मनमें प्रस्तसा हो जाता हूँ; और फिर इन मूर्ख बनियोंके सामने, जिनको न गुरुमहाराजके कथनका ही कोई रहस्य समझमें आता है और जो न बेचारे मुझको ही कुछ समझ सकते हैं । खैर, यदि आप इजाजत दें तो मैं तो आज ही रातकी गाडीसे अहमदाबाद चला जाना चाहता हूं। गुरुमहाराजसे मिलना हो ही गया है और आप जा कर उनसे कह दीजिये कि वे मुझे जानेकी आज्ञा दे दें।' इस पर सिंधीजी बोले कि- 'आपके चले आने बाद गुरुमहाराजने हमसे तो एक और आज्ञा की है, कि यहां पर एक सभा बुला कर, आपको मानपत्र दिया जाय और साथमें ५-१० हजारकी थेली भी समर्पित की जाय । आज रातको और भी दो- चार मुख्य मुख्य व्यक्तियोंको बुलानेको और इस बातका खास विचार करनेको कहा है। सो हमको तो गुरुमहाराजकी आज्ञाके अनुसार चलना होगा।' इत्यादि । सुन कर मैं तो
और भी अधिक हैरान हो गया। मैंने सिंघीजीसे कहा- "आप मेरा स्वभाव जानते हैं । गुरुमहाराज तो बेचारे भोले हैं। उनकी तो भावना रहती है कि हम जिन. विजयजीका कुछ सत्कार करावें जिससे इनका मन प्रसन्न हो । पर मेरा मन ऐसी बातोंसे प्रसन्न नहीं होता। मैं केशरियाजीके इस अप्रिय झमेलेमें पडा वह केवल भापके कारण । नहीं तो मुझे इन तीर्थोके झगडोंसे क्या मतलब । फिजूल ही समाजके हजारों रूपये वकील-बेरिस्टरोंको लुटाये गये, और इसका नतीजा तो कुछ आनेवाला है ही नहीं । गुरुमहाराजके दबाव और प्रभावके वश हो कर ये बनिये यों चाहे हजारों रूपये खर्च करनेको तैयार हो जांय, पर इनसे वास्तविक समाजोपयोगी और ज्ञानोपयोगी कार्यके लिये कुछ खर्च करनेको कहा जाय तो ये एक पाई भी देनेको राजी नहीं । उदयपुरमें ही पिछले साल गुरुमहाराजने, प्रसङ्गवश मेरी उपस्थितिको लक्ष्य कर, लोकोंसे कहा था कि 'जैन धर्मके प्राचीन इतिहासके शिलालेख आदि जो साधन हैं उनका संग्रह करानेका और छपवाने आदिका काम कराना चाहिये ।' तब मैंने कहा था कि- 'उदयपुरके यतिवर्य श्री अनुपचन्दजीने मेवाड़के ऐसे बहुतसे जैन शिलालेख इकठे किये हैं। यदि उनको कुछ मदद दे कर यह काम कराया जाय तो बहुत अच्छा काम हो सकता है' इत्यादि। पर किसीने उसके लिये एक पैसा भी देनेकी इच्छा प्रदर्शित नहीं की और फिर गुरुमहाराज चुप हो गये। यह है इनकी गुरुमहाराजके विचारोंके समझनेकी शक्ति । सो मेहरबानी करके आप इस झंझटमें बिल्कुल न पडें; और मैं तो आज ही रातकी गाडीसे अहमदाबाद जाऊंगा, इसलिये स्टेशन पर जाने के लिये वाहनकी व्यवस्था कीजिये।" सिंघीजी मेरे स्वभावसे परिचित थे, वे कुछ न बोले और नौकरको गाडीके लिये तजवीज करनेको कहा । मैं झटपट संध्याकालका भोजन कर, सिंघीजीसे विदा ले गाडीमें बैठा और स्टेशन पर पहुंचा। दूसरे दिन प्रातःकाल अहमदाबाद, अपने स्थान पर उपस्थित हुआ।
३.६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org