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वर्ष ]
श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [३९ बहुत चकित हुए । 'आर्कियोलॉजिकल सर्वे' की रीपोटों में मैंने उस पुरातन स्थानका बहुत कुछ वर्णन पढा था इसलिये उन खण्डहरों आदिका दर्शन मुझे बहुत ही आल्हादक हुआ। सिंधीजीको भी उनको देख कर प्रसन्नता हुई और बोले कि 'भाप यदि न होते तो यह स्थान देखनेका हमको कभी अवसर नहीं आता।' नगरीके खण्डहर बड़ी दूर दूर तक फैले हुए थे। समय होता तो हम इधर उधर सब जगह घूमते, पर सन्ध्याकाल निकट आ रहा था और उसी रास्तेसे हो कर फिर गुजरना था, इसलिये बड़ी शीघ्रताके साथ कुछ देख-दाख कर हम वापस फिरे। जगह जगह पर पुराने शिल्पके पत्थर और प्राचीन कालीन बड़े आकारकी ईंटें दिखाई पड़ती थीं, जिनको देख कर सिंघीजीका मन उनकी तरफ आकृष्ट होता था और इच्छा हो जाती थी कि यदि इनमें से कुछ उठा कर ले जा सकें तो ले जाय । पर वैसी पत्थरकी चीजें कोई थोड़ी उठाई जा सकती थीं। तो भी वहांकी स्मृतिके लिये ३-४ बड़े आकारकी पुरानी ईटें जो एक जगह अखण्ड रूपसे हमारे देखने में आ गई, हमने उनको उठा ली और तांगेमें रख ली। तांगावाला भी कहने लगा-'हजूर, ये बडी जूनी ईटें हैं। पांडवोंके जमानेकी हैं। वह हाथीवाडा जो आपने देखा वह भी पांडवोंका बनाया हुआ है। पांडवोंके हाथी वहां पर बान्धे जाते थे और जो बड़े बड़े पत्थर आपने वहां देखे, वे रामचन्द्रजीने जो लंका जानेके समय समुद्रका पुल बान्धा था उसके हैं। पाण्डवोंने इस जगह एक राक्षसको अपने कब्जे में किया था और उसने ये सब पत्थर लंकाके समुद्रसे यहां ला कर यह हाथीवाडा बनाया था' इत्यादि । वापस लौटते समय हम दोनों प्रायः आधेसे अधिक रास्ता पैदल ही चल कर आये। क्यों कि तांगेका मजा हम खूब चख चुके थे और उससे हमारी हड्डियोंकी अच्छी कसरत हो चुकी थी। परंतु एक अपूर्व एवं ऐतिहासिक स्थानके देखनेका अनपेक्षित मौका मिला जिसके आन. म्दमें उस कष्टने हमको अधिक व्यथित नहीं होने दिया।
चित्तोडसे बामणवाडा तीर्थको गतकी गाड़ीसे चितोड़से रवाना हो कर हम अजमेरकी और चले। प्रातःकाल
"सूर्योदयके करीब गाडी रूपाहेलीके स्टेशन पर पहुंची, जो मेरी जन्मभूमि है। मैं तो बहुत देरसे जग चुका था और रूपाहेलीके नजदीक आने पर, खिडकीमेंसे मुंह बाहर निकाल कर, इधर उधर उत्सुकभावसे देख रहा था। बचपनकी स्मृतिके कई धुंधले, चित्र सिनेमाकी फिल्मकी तरह, आंखोंके सामनेसे गुजर रहे थे। मेरा भावुक हृदय, अपनी जननीका कुछ दुःखद सरण कर विह्वलसा हो गया और मेरी आंखोंमेंसे
आंसूकी दो-चार बूंदें टपक पडीं। इतने ही में सिंघीजीकी भी' नींद खुल गई और मेरी ओर देख कर वे जरा चिंतितसे हो गये। पूछा- 'आप कुछ खिन्नसे क्यों दिखाई दे रहे हैं? क्या बात है ?' मैं संभल गया। बोला- 'कुछ नहीं। उन्होंने खिडकीमेंसे मुंह निकाल कर बहार देखा; छोटासा स्टेशन है "रूपाहेली" नाम है। बड़ी उत्सुकतासे पूछा- क्या यह वही रूपाहेली है जो आपकी जन्मभूमि है ?' मैंने कहा- 'हां वही।' वे बड़ी तेजीसे सीट परसे उठ खडे हुए और डिब्बेका दरवाजा खोल स्टेशनकी ओर गोरसे देखने लगे। बोले-'गांव किधर आया?' मैंने कहा 'वह तो पीछे रह गया
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