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३४] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [तृतीय मैंने अपनी आजवाली दलीलें तैयार की थी। कागजोंके देखनेसे पता चलता है कि इसके पहले जो कार्रवाई हो गई है वह सब विना मतलबकी थी और केसका उपस्थापन ठीक ढंगसे नहीं किया गया है। हमारे पण्डितोंको (अर्थात् दिगम्बर पक्षवालोंको) अपने प्रमाणों आदिके विषय में कोई ठीक जानकारी नहीं है और उनसे जो कुछ सवाल करता हूँ उसका वे ठीक उत्तर नहीं दे सकते ।' मैंने श्रीमुंशीजीसे कहा''मैं तो सिंघीजीके आग्रहसे बंबई खुद आपको अपने पक्षकी ओरसे बुलाने आया था पर सर चिमनलालने श्रीमोतीलालजीको तय कर लिया इससे फिर मैं मिलने नहीं भाया। परन्तु विधाताका योग देखिये कि आपका यहाँ आना निश्चित था इसलिये उसने हमारे सामनेकी पार्टीकी ओरसे आपको यहाँ उपस्थित कर दिया।' इत्यादि प्रकारकी गपशप कर हम अपने अपने स्थान पर पहुंचे।
दूसरे दिन कोर्ट में जब काम शुरू हुआ तो एक शिलालेखके बारेमें चर्चा चल पड़ी। यह लेख दिगम्बर पक्षकी ओरसे एक मुख्य प्रमाणरूपमें पेश किया गया था, पर लेखमें एक जगह ऐसी भद्दी गलती खुदी हुई थी जिससे लेखका हार्द कुछ भी समझमें नहीं आता था। मुझे तो उसकी चाबी मालूम थी पर सामनेवालोंको उसकी कुछ कल्पना नहीं थी। इससे गलतीका लाभ उठा कर हमारे पक्षके कॉन्सलने उस पर खूब अपना बौद्धिक जोर बतलाया और श्रीमुंशीजीके संस्कृत ज्ञानकी खूब परीक्षा ली गई। उनके पण्डितोंकी बुद्धि तो कुण्ठितसी हो गई थी और मुंशीजी खूब ऊपर नीचे देख देख कर अपना पेलियोग्राफिकल (प्राचीन लिपिविषयक) ज्ञान रिवाइज कर रहे थे और मन ही मन हंस रहे थे । मुंशीजीके पास ही कमिशनके एक मेंबर (स्व०) श्री रतिलाल अंताणी बैठे हुए थे, जो अपने आपको प्राचीन लिपिका अच्छा ज्ञाता समझते थे। उन्होंने लेखके उस अंशको बिल्कुल और ही ढंगसे पढ़ा और कहा कि- 'इसमें तो कोई महादेव मन्दिरका उल्लेख मालूम देता है।' मुंशीजीसे रहा नहीं गया और वे मुझको लक्ष्य कर बोले कि-'मुनिजी ! बताओ न यह क्या शब्द है ? यों ही निकम्मा सर खराब कर रहा है।' इस पर श्रीमोतीलालजीने मुझे हाथसे दबा कर चुप रहनेका इशारा किया और बोले कि 'यहां पर नहीं बंबई जा कर पूछना, वहां बतावेंगे! सुन कर सब हंस पडे ।
श्रीमुंशीजीसे जेल मेंसे निकले बाद फिर मेरी कोई मुलाकात नहीं हुई थी सो इस प्रकार उदयपुरमें एक साथ रहनेका मौका मिल जानेसे हम दोनोंको बड़ा आनन्द आया और उसमें फिर सिंघीजीका मेल हुआ । इससे इतने दिन पहले जो उदयपुरमें खूब परेशानी उठानी पड़ी और मनको ग्लानि हुई वह दूर हो गई और हमारा समय एक प्रकारसे बडे आनन्दमें बीतने लगा। प्रायः रोज शामको एक साथ घूमने जाते और जेल- निवासके सह-स्मरण तथा भविष्यमें किसी साहित्यिक संगठनके विचार भादिमें आपना समय व्यतीत करते थे। कभी कभी सिंघीजी भी साथ हो लेते। उसी प्रसङ्गमेंसे सिंघीजीका भी श्रीमुंशीजीके साथ निकट मैत्रीका सूत्रपात हुआ जो आगे जा कर भारतीय विद्या भवन' को इस प्रकार अनन्य सहकार देनेके रूपमें परिणत हुआ।
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