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२२] : भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [ तृतीय था और अपना अभिप्राय सिंधीजीसे यथावसर विदित करना चाहता ही था, कि दूसरे वर्षके प्रारंभमें स्वयं छात्रालयके विद्यार्थियोंमें मन्दताका वातावरण दिखाई दिया। कुछ विद्यार्थियोंको तो शान्तिनिकेतनके जलवायु ठीक अनुकूल नहीं मालूम दिये और कुछको वहांका पठनक्रम एवं समूचा रहन-सहन ही माफक नहीं मालूम दिया। अत: आधेसे ज्यादह विद्यार्थी उपस्थित ही नहीं हुए।
छात्रालयके स्थापन करने - कराने में मेरा मुख्य उद्देश था कि कुछ बुद्धिशाली और होनहार जैन विद्यार्थी शान्तिनिकेतनके विविध संस्कारपूर्ण वातावरणमें पलकर, उच्च शिक्षा संस्कार और जीवनोपयोगी ज्ञानसे परिचित बनें और समाजमें कुछ क्रियाशील व्यक्तिके रूपमें आगे आवें ।
परन्तु जो विद्यार्थी वहां पर उपस्थित हुए उनके संस्कार और व्यवहार मेरी भावनाके प्रायः विपरीतसे निकले । न उनके माता-पिताओंके शिक्षाविषयक कोई अच्छे विचार थे, न उनके बच्चे कोई विशिष्ट संस्कारसंपन्न व्यक्ति बने ऐसी उनकी कोई भावना थी। उनका तो केवल यही खयाल था कि लडके शान्तिनिकेतनमें रह कर चाहे जिस तरह स्कूलके स्टांडर्ड जल्दी जल्दी पास कर लें। पर शान्तिनिकेतनका पठनक्रम इस भावनाके अनुकूल न था। केवल पुस्तकें रटानेकी अपेक्षा विद्यार्थियोंके संस्कार और आदर्शका उन्नयन करानेकी तरफ वहांके अध्यापकोंकी रुचि अधिक थी और इसी दृष्टिसे वहांका सारा पठनक्रम चलता था। साहित्य, संगीत, नृत्य और चित्रकलाके विशिष्ट अध्ययनका आकर्षण ही शान्तिनिकेतनकी विशेषता थी। पर, केवल द्रव्योपासक और अर्थपूजक वणिकप्रकृतिके जैनियोंको इस प्रकारके सांस्कृतिक शिक्षणमें यत्किंचित् भी अनुराग होनेकी मुझे संभावना नहीं दिखाई दी । इसलिये मैंने सोचा कि 'जैन छात्रालय के निमित्त वहां पर अधिक श्रम और अर्थव्यय करना-कराना कोई विशेष लाभदायक वस्तु नहीं होगी और इस विचारसे उसके निमित्त विशेष प्रवृत्ति करना-कराना स्थगित किया गया।
ग्रन्थमालाका पहला ग्रन्थ प्रकाशित हुआ छात्रालयके उक्त प्रकारके स्कूलके विद्यार्थियोंके अतिरिक्त "सिंघी जैन ज्ञानपीठ"
के उच्चकक्षाके अभ्यासी विद्यार्थी भी कुछ मेरे पास आ गये थे जो शास्त्रीय विषयोंका अध्ययन करते थे । इधर ग्रन्थमालाका कार्य चालू हो गया था और ४-५ ग्रन्थ एक साथ प्रेसमें छपने दे दिये गये थे । इनमें सबसे पहला ग्रन्थ 'प्रबन्धचिन्तामणि' मूल संस्कृत १९३३ के मई-जूनमें छप कर तैयार हुआ। ग्रन्थमालाका टाइटल पृष्ठ आदि कैसा बनाना और उसका बाइन्डींग आदि किस प्रकार करवाना, इस विषयमें सिंघीजी बडी दिलचस्पी रखते थे; अतः उसको अन्तिम स्वरूप देनेके पहले कई दफह उनसे मैंने परामर्श किया था। ग्रन्थमालाके मुखपृष्ठ पर जो सिंघीजीके पिता श्रीडालचन्दजीका रेखाचित्र अंकित रहता है उसकी डिझाइन भी सिंधीजीने स्वयं अपने पास अच्छे आर्टिस्टको बिठा कर तैयार करवाई थी। पहले उन्होंने एक दूसरे आर्टिस्टको अपनी कल्पना दे कर ब्लाक बनवाया जो उनको पसन्द नहीं आया और उसके विषयमें मुझे लिखा कि
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