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वर्ष ]
श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [१३ इसी पत्रमें, उन्होंने पण्डिजीको, हम दोनोंने बैठ कर जो शान्तिनिकेतनमें 'जैन चेयर'की स्थापनाका कार्य निश्चित किया था उसकी रूपरेखाका भी संक्षिप्त सूचन करते हुए लिखा था कि
"शान्तिनिकेतनकी 'जैन चेयर' के लिये जो विचार हुआ है उसमें अभी ये तीन काम होंगे(१) जैन चेयर - अभी तीन वर्षके लिये- पूज्यश्री पिताजीके स्मारकमें । (२) जैन लायब्रेरीके लिये सालाना एक हजार रूपया । याने तीन सालमें
तीन हजार रूपयेके खर्चेसे जैन पुस्तकोंका संग्रह अलग आलमारि
योंमें हमारी स्वर्गीया छोटी बहन केसरकुमारीके स्मारकमें । (३) जो अध्यापक वहां रहेंगे उनकी लिखी हुई या संपादित पुस्तकें
सालाना ढाई हजारके खर्चसे प्रकाशित करना-पूज्यश्री पिताजीके
स्मारकमें। स्कॉलर्शिपके लिये बातचीत चली थी परन्तु कुछ निश्चय नहीं हुआ-पीछे जो कुछ निश्चय होगा सो किया जायगा।"
इस पत्रकी लिखावटसे सिंधीजीके राष्ट्रीय और सामाजिक कार्य करनेके बारेमें कैसे विचार थे उनका भी कुछ दिग्दर्शन हो जाता है।
पण्डितजीको जब यह पत्र बंबईमें मिला, उस समय मैं अहमदाबादमें उक्त सत्याग्रही संग्राममें सम्मीलित होनेका निश्चय कर चुका था और उसके कुछ ही दिन बाद मैं जेलमें पहुंच गया था। इस प्रकार उस समय तो सिंघीजीकी उक्त पत्र में लिखी हुई आशंका सच ही हो चुकी थी और आगामी जुलाईसे शान्तिनिकेतनमें 'सिंघी जैन चेयर' की स्थापनाका प्रोग्राम सचमुच ही 'उलट-पुलट' हो गया था।
नासिक जेलके अनुभव नासिक सेंट्रल जेलमें ही मेरी सबसे पहली मुलाकात मित्रवर श्रीमुंशीजीसे हुई। मैं तो वहां उक्त प्रकारसे पहले ही से गया हुआ था। श्रीमुंशीजी पीछेसे यरवडा जेलसे वहां पर लाये गये थे। हम दोनों उस एक ही बेरेकमें और पासपासके कमरेमें इकट्ठे हो गये। उस पहले ही दिन हम दोनोंके बीच "समान-शील-व्यसनेषु सख्यं" वाली उक्तिका बीजारोपण हो गया और हम एक-दूसरेके बहुत निकटसे मित्र हो गये। मुंशीजी उन दिनों "गुजरात एन्ड इटूस् लिटरेचर" वाली अपनी प्रसिद्ध पुस्तकका मशाला इकट्ठा कर रहे थे। हम दोनों रोज घंटों साथ बैठ कर गुजरातके प्राचीन इतिहास और साहित्यके अनेक पहलुओं पर विचार-विनिमय किया करते और अपना अपूर्व आनन्द लूटा करते । सिंघीजीके समान मुंशीजीके साथ भी, मेरा वैसा ही उन्मुक्त सौहार्दभाव तत्क्षण स्थापित हो गया, जो पिछले १५ वर्षों में शुक्लपक्षके चन्द्रकी कलाओंकी तरह, उत्तरोत्तर विकसित ही होता रहा। मेरे विचारमें, मनुष्यके जीवन में ऐसा सौहार्द भाव ही सबसे अधिक मूल्यवान् संपत्ति है और सबसे अधिक आनन्ददायक स्मृति है।
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