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१२] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [तृतीय अभ्यास चाल रखा और हिन्दीमें एक जर्मन प्राइमर लिखनेका उपक्रम किया। वीर मरीमान तथा डॉ. चोकशीने मुझसे हिन्दी भाषा और उसका साहित्य पढना शुरू किया । सेठ जमनालालजी बजाज अपना गुजराती भाषाका विशेष ज्ञान बढानेकी इच्छासे रोज मेरे पास दो घंटे नियमित गुजराती साहित्य पढा करते थे। सुबह स्थामकी प्रार्थना भी हम दोनों नियमित साथ बैठ कर करते और मीरा तथा कबीरके कुछ भजन सुनानेका मुझसे वे सदा अनुरोध करते । पीछेसे कवीन्द्र रवीन्द्र नाथकी गीतांजलीके गीतों पर भी उन्हें बहुत अनुराग हो गया और फिर उनमेंसे भी दो चार गीत रोज सुनानेका वे आग्रह करते । इस तरह नासिक जेलका निवास मेरे लिये तो एक प्रकारसे विद्या मन्दिरका ही निवाससा बन गया।
सिंघीजीका पत्र और मनोभाव सिंघीजीको इस बातका तब तक कोई पता नहीं चला । ना ही मैंने अपने बारेमें
"उन्हें कुछ सूचना दी । यद्यपि मैंने उनके साथ परामर्श कर, शान्तिनिकेतनमें "सिंघी जैन ज्ञानपीठ की स्थापनाका कार्यक्रम मनमें बहुत कुछ स्थिर कर लिया था, पर मनमें रह रह कर किसी सामाजिक या सार्वजनिक कार्य में प्रवृत्त होनेकी धुन भी अभी तक उठा ही करती थी । इतने में उक्त सत्याग्रहका अनिवार्य प्रसंग आ उपस्थित हुआ। महात्माजीके चलाए हुए इस राष्ट्रीय आन्दोलनसे मैं किसी तरह अलिप्त रह नहीं सकता था। सिंघीजी बडे चतुर और देशकी परिस्थितिके सतर्क निरीक्षक थे। गुजरातमें जब यह आन्दोलन खूब जोरशोरसे शुरू हुआ, तो उनके मनमें सहज शंका हुई, कि कहीं मैं इस आन्दोलनमें संमीलित न हो जाऊं और उसके कारण जो उन्होंने अपने चिराभिलषित कार्यके प्रारंभ करनेका उपक्रम निश्चित किया है, वह गडबड न हो जाय। इस विषयमें उन्होंने एक पत्र जो उनदिनों (ता. १५-५-३०) पण्डितजीको लिखा उसमें उन्होंने अपने ये विचार इस तरह स्पष्ट लिखे थे
"श्रीजिनविजयजी पटनामें पावापुरीजीके केसमें गवाही दे कर अहमदाबाद चले गये हैं। ...अब वे कहां है मालूम नहीं। हमको सबसे बडा डर यह है कि वे कहीं महात्माजीके छेडे हुए राष्ट्रीय युद्धमें न फंस जाय और अपना ठहराया हुआ प्रोग्राम सब उलट पलट न हो जाय। राष्ट्रीय स्वाधीनताकी लड़ाई भी बडे महत्त्वकी है। मगर वह राष्ट्रीय होनेके कारण भारतकी सर्व जनता उसमें भाग ले सकती है और अपना काम धार्मिक और सामाजिक होनेके कारण फक्त जैनी ही इसको कर सकते हैं। इसलिये जैनियों के वास्ते यह भी कम महत्त्वका नहीं है। इस कारणसे जैनियोंको खास करके इस तरफ भी दृष्टि रखना चाहिए। सांप्रदायिकताका भाव इसमें जरूर आ जाता है और राष्ट्रकी दृष्टिसे इसमें संकुचितता भी कुछ आ जाती होगी, मगर सांप्रदायिक उन्नतिके वगैर राष्ट्रीय उन्नति भी अपूर्ण रह जाती है। और शायद स्थायी भी नहीं होती है। जड कमजोर रह जाती है। इसलिये जैनियोंको जिस जगह अपने धर्मके तत्त्वोंका प्रचार और सामाजिक उन्नतिके लिये कुछ कार्य करनेका मौका हो तो उसकी उपेक्षा करके दूसरे कार्यमें हाथ देना जरूरी हो यह हमारी समझमें नहीं आता है । इस विषयमें उनके क्या खयालात है, कभी बात होनेका अवसर नहीं आया। अभी आपको पत्र लिखना आरंभ करते ही यह बात ध्यानमें आ गई सो यों ही लिख डाली है।"
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