Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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( XLIX ) "प्रस्तुत आगम के दो संस्करण मिलते हैं एक संक्षिप्त संस्करण और दूसरा विस्तृत। विस्तृत संस्करण का ग्रन्थमान सवा लाख श्लोकप्रमाण है, इसलिए उसे सवालक्खी भगवती कहा जाता है। उसकी एक प्रति हमारे पुस्तक-संग्रह में है। इन दोनों संस्करणों में कोई मौलिक भेद नहीं है । लघु संस्करण में जो समर्पण-सूत्र है-पूरा विवरण देखने के लिए किसी दूसरे आगम को देखने की सूचना दी गई है, उसको पूरा लिख दिया गया है। प्रस्तुत आगम में समर्पण-सूत्रों की संख्या बहुत बड़ी है। प्रथम शतक के चौदहवें सूत्र से ही समर्पण-सूत्रों का प्रारम्भ हो जाता है और वह इकतालीसवें शतक तक चलता है।"
समर्पण-सूत्रों में अनेक आगमों का उल्लेख है-प्रज्ञापना, जीवाजीवाभिगम, राजप्रश्नीय, अनुयोगद्वार, औपपातिक, नंदी, जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति, आवश्यक, दशाश्रुतस्कन्ध, आचारचूला।
"व्याख्याप्रज्ञप्ति अंगप्रविष्ट श्रुत के अंतर्गत एक महत्त्वपूर्ण अंग है। उसमें अंग-बाह्य आगमों के निर्देश क्यों? यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है। इस प्रश्न को पण्डित दलसुखभाई मालवणियाजी ने बहुत व्यवस्थित ढंग से उभारा है। उन्होंने लिखा है
___ " 'माथुरीवाचनान्तर्गत अंग-आगमों में जैसे कि भगवती-व्याख्याप्रज्ञप्ति जैसे बहुमान्य आगम में भी जहां भी विवरण की बात है वहां अंगबाह्य उपांगों का औपपातिक, प्रज्ञापना, जीवाजीवाभिगम आदि का आश्रय लिया गया है। यदि ये विषय मौलिक रूप से अंग के होते तो उन अंगबाह्य आगमों में ही अंग-निर्देश आवश्यक था। ऐसा न करके अंग में उपांग का निर्देश यह सूचित करता है कि तविषयक मौलिक विचारणा उपांगों में हुई है और उपांगों से ही अंग में जोड़ी गई है।
"यह भी कह देना आवश्यक है कि ऐसा क्यों किया गया। जैन-परम्परा में यह एक धारणा पक्की हो गयी है कि भगवान् महावीर ने जो कुछ उपदेश दिया वह गणधरों ने अंग में ग्रथित किया। अर्थात् अंग-ग्रन्थ गणधरकृत हैं। और तदितर स्थविरकृत हैं। अतएव प्रामाण्य की दृष्टि से प्रथम स्थान अंग को ही मिला है। अतएव नयी बात को भी यदि प्रामाण्य अर्पित करना हो तो उसे भी गणधरकृत बताना आवश्यक था। इसी कारण से उपांग की चर्चा को भी अंगान्तर्गत कर लिया गया है। यह तो प्रथम भूमिका की बात हुई, किन्तु इतने से संतोष नहीं हुआ तो बाद में दूसरी भूमिका में यह परम्परा भी चलाई गई कि अंग-बाह्य भी गणधरकृत हैं और उसे पुराण तक बढ़ाया गया। अर्थात् जो कुछ जैन नाम से चर्चा हो उस सबको भगवान् महावीर और उनके गणधर के साथ जोड़ने की यह प्रवृत्ति इसलिए आवश्यक थी कि यदि उसका संबंध भगवान् और गणधरों के साथ जोड़ा जाता है तो १. भगवई (भाष्य), खण्ड १, भूमिका, पृ. २. द्रष्टव्य, भगवई (भाष्य), खण्ड १, २३।
भूमिका, पृ. २३-३२।