Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहुसंहिता
(9 अ० 1 श्लो) में आयी हैं। इन वीथियों में भद्रबाहु संहिता में अज नाम की वीथि एक नयी है तथा ऐरावत के स्थान पर ऐरावण और दहन के स्थान पर वैश्वानर वीथियाँ आयी हैं । इस निरूपण में केवल शब्दों का अन्तर है, भाव में कोई अन्तर नहीं है । भद्रबाहुसंहिता में भरणी से लेकर चार-चार नक्षत्रों का एक-एक मण्डल बताया गया है। कहा है---
भरण्यादीनि चत्वर चतुर्नक्षत्राणि हि षडेव मण्डलानि स्युस्तेषां नामानि लक्षयेत् ॥ चतुष्कं च चतुष्कञ्च पंचकं त्रिकमेव च । पंचकं बटुक विज्ञेयो भरण्यादौ तु भार्गवः । भ० सं०, 15 अ० 7, 9 श्लो० बाराही संहिता के 9वें अध्याय के 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20 वें प्रलोक में उपर्युक्त बात का कथन है । भद्रबाहुसंहिता के अगले श्लोकों में फलादेश का भी है, जबकि संहिता में मण्डल के नक्षत्र और फलादेश साथ-साथ वर्णित है। शुक्र के नक्षत्र-गंदन का फल दोनों ग्रन्थों में रूपान्तर है । भद्रबाहुसंहिता में कहा गया है कि शुक्र यदि रोहिणी नक्षत्र में आरोहण करे तो भय होता है । पाण्डय, केरल, चोल, कर्नाटक, चेदि, चेर और विदर्भ आदि देशों में पीड़ा और उपद्रव होता है । वाराही संहिता मैं भी मृगशिर नक्षत्र का भेदन या आरोहण अशुभ माना गया है। बाराही संहिता के शुक्रचार में केवल 45 श्लोक हैं, जबकि भद्रबाहुसंहिता में 231 श्लोक हैं। इसमें विस्तारपूर्वक शुक्र के गमन, उदय एवं अस्त आदि का वर्णन किया गया है। बाराही संहिता की अपेक्षा इसमें कई नयी बातें हैं।
भद्रबाहुमंहिता और बाराही महिला में शनैश्चर चार नामक अध्याय आया है । यह भबानुसंहिता का 16वाँ अध्याय और वाराही संहिता का दसवाँ अध्याय है। बाराही संहिता का यह वर्णन संहिता के वर्णन की अपेक्षा अधिक विस्तृत और ज्ञानवर्धक है। वाराही संहिता में प्रत्येक नक्षत्र के भोगानुसार फलादेश कहा गया है, इस प्रकार के वर्णन का मद्रबाहु संहिता में अभाव है । भद्रबाहुसंहिता में कहा गया है कि कृत्तिका में शनि और विशाखा में गुरु हो तो चारों ओर दारुणता व्याप्त हो जाती है तथा वर्षा खूब होती है। शनि के रंग का फलादेश लगभग समान है । भद्रबाहु संहिता में बताया गया हैश्वेते सुभिक्षं जानीयात् पाण्डु-लोहितके भयम् । पीतो जनयते व्याधि शस्त्रकोपं च दारुणम् ॥ कृष्णे शुष्यन्ति सरितो वासवश्च न वर्षति । स्नेह्वानत्र गृह जाति रूक्षः शोषयते प्रजाः 11
- भ० सं० अ० 16, श्लो० 26-27
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