Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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तृतीयोऽध्यायः
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आगे हम रात्रि में होने वाले परिवेषों के लक्षण और फल वो कहेंगे; पश्चात दिन में होने वाले परिवेषों के लक्षण और फल का निरूपण करेंगे। क्रमशः उन्हें अवगत करना चाहिए ॥411
क्षीरशंखनिभाते परिवेष योग :
तदा क्षेमं सुभिक्षं च राज्ञो विजयमादिशेत् ॥5॥ चन्द्रमा के इदं-गिदं दूध अथवा शंख के सदृश परिवेप हो तो क्षेम-कुशल और मुभिज्ञ होता है तथा राजा की विजय होती है ।।5।।
सपिस्तलनिकाशस्तु परिवेषो यदा भवेत् ।
न चाऽऽकृष्टोऽतिमात्र च महामेधस्तदा भवेत् ॥6॥ यदि घृत और तैल के वर्ण का चन्द्रमा का मण्डल हो और वह अत्यन्त प्रवेत न होकर विञ्चित् गन्द हो तो अत्यन्त वर्ण होती है ।।७।।
रूप्यपारापताभश्च परिवेषो यदा भवेत् ।
'महामेघास्तवाभीक्षण' तर्पयन्ति जलमहीम् ।।7॥ चाँदी और कबूतर के समान आ'भा बाला चन्द्रमा का परिवेष हो तो निरन्तर जल-वर्षा द्वारा पृथ्वी जलवाचित हो जाती है अर्थात् नाई दिनों तक झड़ी लगी रहती है ।।7।।
इन्द्रायुध सवर्णस्तु परिवतो यदा भवेत।
संग्राम तत्र जानीयाद वर्ष" चापि जलागमम् ॥8॥ यदि पूर्वादि दिशाओं में इन्द्रधनुष के समान वर्ण बाला चन्द्रमा का परिवेष हो तो उस दिशा में संग्राम का होना और जल का बरसना जानना चाहिए ॥६।।
कृष्णे नीले ध्रुवं वर्ष पीते तु" व्याधिमादिशेत् ।
12रूक्षे भस्म निभे चापि दुष्टिभयमादिशेत् ॥9॥ काले और नीले वर्ण का चन्द्रमण्डल हो तो निश्चय ही वर्षा होती है । यदि पीले रंग का हो तो व्याधि का प्रकोप होता है। चन्द्रमण्डल में रूक्ष और भस्म सदृश होने पर वर्षा का अभाव रहता है और उसमे भय होता है । तात्पर्य
1. परिवेष आ० । 2. यथा आ० । 3. आकष्ट मु० । 4. धारर मु. C.I 5. प्रभावस्तु म.C. 1 6. मेष: A.C. B. मु. 17. भीक्षं मु० C.48. मवर्ण आ० । 9. वर्ष आ० । 10. जलागमे आ० । 11. पीतके आ० । 12. मदिन C में इसके पूर्व लक्षवप्रतिमानातु महामेघस्तदा भवेत्' यह पाठ भी मिलता है ।