Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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पंचदशोऽध्यायः
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समस्त प्राणियों का कल्याण करने वाले रक्त, परुप, दीप्तिमान, ऊर्ध्व, चण्ड और तीक्ष्ण ये छ: मण्डल है। नाम के अनुसार उसका अर्थ अवगत करना चाहिए 11811
___चतुष्कं च चतुष्कञ्च पञ्चकं त्रिकमेव च।
पञ्चकं षट्कभिज्ञेयो भरण्यादी तु भार्गव: ॥9॥ भरणी स चार नक्षत्र. गरणी, कृत्तिका, रोहिणी और मृगशिरा का प्रथम मण्डल; आर्दा स चार नक्षत्र–आर्द्रा, पुनर्व, पुष्य और आश्लेषा का द्वितीय मण्डल; पधा से पांच नक्षत्र : मधा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त और चिया का तृतीय मण्डल; स्वाति में तीन नक्षत्र-स्वाति, विशाखा और अनुराधा का चतुर्थ भाल; ज्येष्ठा ग पांच नक्षत्र -बाठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तरमपाढा और श्रवण का पंचम मगइन एवं धनिष्ठा से छः नक्षत्र · धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा. भाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती का पाठ मण्डल होता है । इन मण्डला नाग वामश: रक्त, परुय, रोचन, ऊध्वं, चण्ड और तीक्ष्ण है ।।9।।
प्रथमं च द्वितीयं च मध्यमे शुक्रमण्डले।
तृतीयं पञ्चमं चैव मण्डले साधुनिन्दिते ।।10। शुक्र के प्रयम और द्वितीय मण्डल आयाम है तथा तृतीय और पचम साधुओं के द्वारा निन्दित हैं ।। 100
चतुर्थ चैव पष्ठं च मण्डलें प्रवरे स्मृते।
आधे द्वे मध्यमे विधानिन्दिते त्रिकपञ्चमे || चतुर्थ और पाठ मल उत्तम है । आदि का प्रथम और द्वितीय मध्यम हैं तथा तृतीय और पंचम निन्दित हैं || III
श्रेष्ठे चतुर्थषष्ठं च मण्डले भार्गवस्य ह।
शुक्लपक्ष 'प्रशस्येत् सर्वेष्वस्तमनोदये ।। 12॥ शुक्ल पक्ष में अनुदित--अस्त शुक्र के चौथे और छठे माल की प्रशंसा की गयी है ॥ 1211
'अथ गोमूत्रगतिमान् भार्गवो नाभिवर्षति ।
विकृतानि च वर्तन्ते सर्वमण्डलदुर्गतौ ।।3।। यदि बक्रगति शुक्र हो तो या नहीं होती है । चौथे और यष्ठ के अतिरिक्त अन्य सभी मण्डलों में रहने वाला शुभ विकृत-उत्पातकारक होता है ।। 13।।
। यह लांकः मुद्रित
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