Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहुसंहिता विचार वीथि, प्रभा और वर्ण आदि के अनुसार करना चाहिए ।।21।।
यां दिशं केतवोचिभिर्धमयन्ति दहन्ति च ।
तां दिशं पीडयन्त्येते क्षुधाये: पोडनैभृशम् ॥22॥ जिस दिशा को केतु अग्निमयी किरणों के द्वारा धूमित करते हैं और जलाने हैं, वह दिशा क्षुधा, रोमादि के द्वारा अत्यन्त पीड़ित होती है ।।22॥
नक्षत्रं यदि वा केतुर्ग्रहं वाऽप्यथ धूमयेत् ।
तत: शस्त्रोपजीवीनां स्थावरं हिसते ग्रहः ।।23।। यदि कोतु वि.पी नक्षत्र था ग्रह को अभिमत वारे तो शास्त्र में आजीविका करने वाले एवं स्थावरों की हिंमा होती है ।।23॥
स्थावरे धुपिते तज्ज्ञा यायिनो यात्रिधूपनें ।
*शनरी भिनाजातीन सारमोकांस्तथैव च ॥2411 ___ स्थावर और यात्रियों के धूभित होने पर शवर, भिल्ल और पारसियों को पीड़ित होना पड़ता है ।।24।।
शुक्रं दीप्त्या यदि हन्याभूमकेतुरुपागतः ।
तदा सस्यं नृपान् नागान् दैत्यान् शूरांश्च पीडयेत् ॥2511 यदि धूमोतु अपनी दीप्ति से शुक्र को घातित करे तो धान्य, राजा, नाग, दत्य और शूरवीरों नो पीड़ा होती है ।।25।।
शुकानां शकुनानां च वृक्षाणां चिरजीविनाम् ।
शकुनि-ग्रहपीडायां फलमेतत् समादिशेत् ॥26॥ शुकुनि ग्रह की पीड़ा में शुक, 'पक्षी चिर और वृक्षों का पीड़ा कारक फन्न काहना चाहिए 12611
शिशुमारं यदा केतुरुपागत्य प्रधुमयेत् ।
तदा जलचरं तोयं वृद्धवक्षांश्च हिसति ॥27॥ जब केतु णिशुमार-संस नामक जलजन्तु को धूमित करता है तब जलचर, जल और वृद्ध वृक्षों का घात होता है ॥27॥
सप्तर्षीणामन्यतमं यदा केतु: प्रधुमयेत् । तदा सर्वभयं विन्द्यात् ब्राह्मणानां न संशयः ।।28।।
1. जीयापच स्थायश्च म मिति, पु.। 2. पापिन था म्. । 3. प्राप्नुवयनमान् जोतन मनंग: पपीडिता. मु०।