Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहुसंहिता उपवास इत्यादि को द्वारा शरीर और कपायों को कृश कर आत्मशोधन में लगना सल्लम्बना है, इग क्रिया को करने वाला प्रक्ति ज्ञान, ध्यान में संलग्न
रहता है ।।7।1 .
शास्त्राभ्यासं सदा कृत्वा सङग्रामे यस्तु मुह्यति ।
दिपोस्तारण करनानो माण तथा व्रतम् ।।8।। शास्त्र-स्वाध्याय करने पर भी गिराको वृद्धि इन्द्रियों में आसक्त रहती है उस मुनि के त हाथी : स्नान की तरह व्यर्थ हैं अर्थात् जिस प्रकार हाथी स्नान करने के अनन्त र पुनः धलि अपने शरीर पर बिखेर लेता है, उसी प्रकार जो मुनि वा मालागाधक मात्राभ्याग करने पर भी सल्लेखना नहीं धारण करता है और इन्द्रियों में आगवन रहता है इसके अत व्यर्थ है। अतः जीवन का वास्तविक उद्देश्य मल्लेखना धारण करना है ।।8।।
विरतः कोऽपि संसारी संसारभयभीरुकः ।
विन्यादिमान्यरिष्टानि भाव्यभावान्यनुक्रमात् ॥9॥ जो कोई संसार मे विस्त तथा संगार भया मे युक्त व्यक्ति आत्म-कल्याण करना चाहता है उसके लिए परीर में उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के अरिष्टों का मैं निरूपण करता हूँ 1911
पूर्वाचार्यैस्तथा प्रोक्तं दुर्गालादिभिः यथा ।
गृहीत्वा तदभिप्राय तथारिष्टं वदाम्यहम् ॥10॥ दुर्गाचार्य, पलाचार्य आदि पूर्वाचार्यो के कथन अभिप्राय को लेकर ही में अरिष्टी मा कथन करता हूँ ।।10।।
पिण्डस्थञ्च पदस्थञ्च रूपस्थञ्च त्रिभेदतः ।
आसन्नमरणे प्राप्ते जायतेऽरिष्ट सन्ततिः ।।।। जिस व्यक्ति का शीघ्र ही मरण होने वाला है उसके शरीर में निद्रस्थ, पदस्थ और Eथ ये तीन प्रकार के अरिष्ट उत्पन्न होते हैं |1||
विकृति श्यते कारिष्ट पिण्डस्थमुच्यते ।
अनेकधा तत्पिण्डस्थं ज्ञातव्यं शास्त्रवेदिभिः ॥12॥ शरीर में अप्राकृतिक रूप ग अनेक प्रकार की विकृति होने को शास्त्र के जानने वालों ने पिण्डस्थ अरिष्ट कहा है ।।। 2||
सुकुमारं करयुगलं कृष्णं कठिनमवेद्यदायस्य । न स्फुटन्ति वाङ गुलयस्तस्यारिष्टं विजानीहि11311