Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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शास्तविंशतितमोऽध्यायः
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हुआ दृष्टिगोचर हो तो इस प्रकार के स्वप्न के देखन से जीवन में अनेक तरह की सफलता मिलती है।
सप्तविंशतितमोऽध्यायः
यदा स्थिती जोवबुधौ ससूर्या राशिस्थितानाञ्च तथानुवतिनौ । नृनागबहावरसंगरस्तदा भवन्ति वाता: समुपस्थितान्ताः ॥11॥
जन्न बृहस्पति और बुध गुर्य का साथ स्थित होकर स्वराशियों में स्थित ग्रहा के अनुवर्ती हो और मनुष्य, रापं तथा अन्य छोटे जन्तु युद्ध करने दिखलायी पड़े तब भयंकर तूफान आता है ।।1।।
न मित्रभावे सुहृदो समेता न चाल्पतरमम्बु ददाति वासवः। भिनत्ति वज्रेण तदा शिरांसि महीभतां चाप्यपवर्षणं च ।।2।।
यदि शुभ ग्रह मित्रभाव में स्थित न हो तो वर्षा का अभाव रहता है तथा इन्द्र पर्वतों के मस्तक को बन गनर करता है-पर्वतों पर विध पात होता है और अवर्षण रहता है 112॥
सोमग्रहे निवृत्तेषु पक्षान्त चेद् भवेद्ग्रहः । तत्रानयः प्रजानां च दम्पत्योवरमादिशेत् ॥३॥
चन्द्रमा की निवृत्ति होने पर पक्षान्त में यदि कोई अशुभ ग्रह हो तो प्रजा में अनीति-- अन्याय और दम्पति वैर होता है ।।3।।
कृत्तिकायां दहत्याती रोहिण्यामर्थसम्पदः । दंशन्ति मूषिका: सौम्ये चायां प्राणसंशय: ।।4।।
कृनिका नाम नहीन वस्त्र या नवीन धारण करने में अग्नि जलानी है, गहिणी में धन-सम्पनि को प्रातril है, मगर पं मूषण नाटते हैं और आर्द्रा में प्राणों का मगम उत्पन्न हो जाता है ।