Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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सप्तदशोऽध्यायः
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वृहस्पति के दक्षिण व पांच मार्गों में पञ्चम मार्ग वक्र गति द्वारा पूर्ण किया जाता है और उत्तर के गाँच मार्यो में नम मार्ग मार्गी गति द्वारा पूर्ण किया उजा है ।। 1 211
हस्वे भवति दुभिक्षं निष्प्रभे व्याधि भयम् ।
विवणे पापसंस्थाने मन्दपुष्प-फलं भवेत् ।।। गुरु के हस्व मार्ग में गमन करने पर दुभिक्ष, निष्प्रभ में गमन करने पर व्याधि और भय, तथा विवर्ण और पाप संस्थान मर्ग में गमन करने पर अलप फल और पुष्प उत्पन्न होते हैं ।।13।।
प्रतिलोमोऽनुलोमो वा पञ्च संवत्सरो यदा।
नक्षत्राण्युपसर्पेण तदा सृजति दुस्समाम् ।।141 वृहस्पति अपने पाँच संवत्सरों में नक्षत्रों का प्रतिलोम और अनुलोय रूप में। । गमन करता है तो दृष्काल को उत्पत्ति होती है अर्थात् प्रजा को काट होता है।14।।
सस्य नाशो अनावष्टि'मत्युस्तीवाश्च व्याधयः ।
शस्त्रकोपोऽग्नि मूळ च षड्विध मूर्छने भयम् ॥15॥ बृहस्पति को उक्त प्रकार की स्थिति में धान्य नाश, अनावृष्टि, तीवकोध, रोग, शस्त्रकोप, अग्नि कोष एवं मुळ आदि भय उत्पन्न होते हैं ।। 1 511
सप्ता, दि वाऽष्टाध षडधं निष्प्रभोदितः । पञ्चा चावार्ध च यदा संवत्सरं चरेत् ।।16।। सङग्रामा रोरवास्तत्र निर्जलाश्च बलाहका: ।
श्वतास्थी पृथिवी सर्वा भ्रान्ताक्षस्नेहवारिभिः ॥17॥ जब बृहस्पति संवत्सर, परिवत्सर, इदाबासर, अनुवत्सर और इद्वत्सर इन पांच संवत्सरों में में संवत्सार नाम के वर्ष में विचरण कर रहा हो, नया साढ़े तीन नक्षत्र, चार नक्षत्र, तीन नक्षत्र, हाई नक्षत्र और आधे नक्षत्र पर निष्प्रभ उदित हो तो संग्राम. निरादर, मघों का निजल होना, पृथ्वी का प्रवत हड्डियों से युक्त होना; क्षुधा, गेग और कुवायु मान के द्वारा असा होना आदि फल प्राप्त होते हैं 1116-17।।
1. मन्युः । 2. निन्दा
मेघाच सोहना म 3. भाग्नः सुधागे: यूवा सुभिः,