Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहुसंहिता
गोपालं वर्जयेत् तत्र दुर्गाणि च समाश्रयेत्।
कारयेत् सर्वशस्त्राणि बीजानि च न वापयेत् ।।1411 उक्त प्रकार की शनि की स्थिति में गोपाल -- गोपुर, नगर को छोड़कर दुर्ग का आप्रय ग्रहण करना चाहिए, शस्त्रों की संभाल एवं नवीन शस्त्रों का निर्माण करना चाहिए और वीज बोने का कार्य नहीं कारना चाहिए ।। 1 411
प्रदक्षिणं तु ऋक्षस्य यस्य याति शनैश्चरः।
स च राजा विवर्धेत सुभिक्षं क्षेममेव च ॥15॥ शनि जिस नक्षत्र की प्रदक्षिणा करता है, उस नक्षत्र में जन्म लेने वाला राजा वृद्धिंगत होता है । सुभिन्न और कल्याण होता है ।। 15॥
अपसव्यं नक्षत्रस्य यस्य याति शनैश्चरः।
स च राजा विपद्येत दुभिक्षं भयमेव च ।।16॥ शनि जिस नक्षत्र के अपसव्य दाहिनी ओर गमन करता है, उस नक्षत्र में : उत्पन्न हुआ राजा विपत्ति को प्राप्त होता है तथा दुविक्ष और विनाश भी होता है ।।1611
चन्द्र: सौरि यदा प्राप्त: परिवेषेण रुन्द्धति।
अवरोधं विजानीयान्नगरस्य महीपतेः ॥17॥ जब चन्द्रमा शनि को प्राप्त हो और परिवेष को द्वारा अवरुद्ध हो तो नगर और राजा का अवरोध होता है अर्थात किसी अन्य राजा के द्वारा डेरा डाला जाता है ॥17॥
चन्द्र: शनैश्चरं प्राप्तो मण्डलं वाऽनुरोहति ।
यवनां सराष्ट्रां सौवीरां वारुण भजते दिशम् ।।1।। चन्द्रमा शनि को प्राप्त होकर मण्डल पर आरोहण करे तो यवन, सौराष्ट्र, सौवीर उत्तर दिशा को प्राप्त होते हैं ।।। 811
आना: सौरसेनाश्च दशार्णा द्वारिकास्तथा ।
आवन्त्या अपरान्ताश्च यायिनश्च तदा नृपाः ॥19॥ उपर्युक्त स्थिति में आनर्त, सौरसेन, दशार्ण, द्वारिका और अवन्ति के निवासी राजा यायी अर्थात् आक्रमण कारने बाले होते हैं ।।1911
1. सध्यत पु० । 2. गोरेयां म० । 3. दारणां च मजेशाग मु० ।