Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहुसंहिता ये विदिक्षु विमिश्राश्च 'विकर्मस्था विजातिषु ।
"प्रतिपुद्गलाश्च येषां तेषामुत्यातजं फलम् ॥॥ जो विदिशाओं में अलग-अलग हों तथा बिजाति--भिन्न-भिन्न जाति के वृक्षा में विवामस्थ--जिक कार्य पृथक्-पृथक हो वे जनपद के लिए उत्पात सूचक होने हैं। प्रति पुद्गल का तात्पर्य उत्पात में होने वाले फल की सूचना देना है। 500
श्वतो रसो द्विजान् हन्ति रक्तः क्षत्रनृपान् वदेत् ।
पीतो वैश्यविनाशाय कष्ण: शूद्रनिषूदये ॥३॥ यदि वृक्षों ग वा रग का क्षरण हो तो द्विज-ब्राह्मणों का विनाश, लाल रस गिरा हो तो क्षत्रिय र राजाओ ना बिना ग, पीला ग क्षरित हो तो बैंश्यों का विना और कृष्ण नाला रस क्षरित हो तो पुत्रों का विनाश होता है ।।311
पर नृपभयं शुधाव्याधिधनक्षयम् ।
एवं लक्षणसंयुक्ता: सावा: पुणुमहद्भयम् ॥3211 यदि श्यत, लत, पीत वीर कृष्ण वर्ण का मिश्रित रस क्षरित हो तो पर शासन और नृपति का भय, क्षुधा, रोग, धन का नाश और महान भय होता है ।। 3 2।।
कोटदष्टस्य वृक्षस्य व्याधितस्थ च यो रसः ।
विवर्ण: सवले गन्धं न दोषाय स कल्पते ।।3।। यदि कीड़ो द्वारा पायं गये गेगी वृक्ष का विकृत और दुर्गन्धित रस क्षरित होता है, तो उनका दोष नहीं माना जाता। अर्थात् रोगी वृक्ष के रस क्षरण का विचार नहीं दिया जाता ।।33॥
वृद्धा द्रमा स्रवत्याशु मरणे पर्युपस्थिताः ।
ऊर्दा: शुष्का भवन्त्यले तस्मात् ताल्लक्षयेद् बुधः ।।3411 मरण के लिए उरियर - जारित टूटकर गिरने वाले पुराने वृक्ष ही रस का धारण करते हैं। अगर को ओर ये सूख होत हैं। अतएव बुद्धिमान व्यक्तियों को इनका लक्ष्य करना चाहिए ।।34।।
यथा वृद्धो नरः कश्चित् प्राप्य हेतुं विनश्यति ।
तथा वृद्धोद्रमः कश्चित् प्राप्य हेतुं विनश्यति ॥35॥ Tithiगु । 2. पदालाच तु च वषां न तपा प्रतिपद गलाः ग० 1 3. गजा मु०। 4. निम्न्याश गुः ।
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