Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहुसंहिता
शयनासने परीक्षा ग्राममारों वदेत् ततः ।
सन्ध्यायां सुप्रदीप्तायां यदा सेनामुखा ह्या: ।।153।। यदि सन्ध्याकाल में घोड़े सेना के सम्मुख हींसते हों अथवा शयन और आसन की परीक्षा करके अशुभ होते हो तो ग्राममारी का निर्देश करना चाहिए ।।15311
वासयन्तो विभेषन्तो घोरात् पादसमुद्धताः ।
दिवसं यदि वा रात्रि हेषन्ति सहसा या: ॥15411 यदि घोड़े पैरों से मिट्टी उखाड़ते हुए डगते हों या स्वयं डरकर छिप रहें हों। तो भय समझना चाहिए । दिन अथवा रात्रि में घोड़ों का अकस्मात् हींसना भी भय का निर्देशक है।।1540
सन्ध्यायां सुप्रदीप्तायां तदा विन्द्यात् पराजयम् ।
'उन्मुखा रुदन्तो वा दीनं दीनं समन्ततः॥15॥ यदि सन्ध्याकाल में घोड़े कार को मुंह किये हुए रोते हो या दीन होकर चारों ओर भमण करते हो तो पराजय गमलना चाहिए ।। 1 55।।
"हया यत्र तदोत्पातं निहिशेद्राजभत्यवे ।
विच्छिद्यमाना हेषन्ते यदा रूक्षस्वरं हया: ॥156॥ जब घोड़े कक्ष स्वर और टूटी-फूटी आवाज में हीसते हो तो वे अपने इस उत्पात द्वारा गाया की मृत्यु की सूचना में ।। 156!।
खरवभीमनादेन तदा विधात् पराजयम् ।
उत्तिष्ठन्ति निषोदन्ति विश्वसन्ति भ्रमन्ति च ।।1571 जब घोड़े गायों के समान तीन स्वर में रेजें और उठे-बैठे तथा भ्रमण करें तो पराजय समझाना नाहिए ।।। 57||
रोगार्ता इव हेन्ते तदा विन्यात पराजयम् ।
ऊर्ध्वमुखा विलोकन्ते विन्द्याज्जनपदे भयम् ।।158 यदि रोग से पीड़ित हुए क गभान हीसा हो तो पराजय समझना चाहिए और अर्ध्वमन्य रेंके तो जनपद ना भर होता है । 1 58।।
शान्ता प्रहष्टा धर्मार्ती विधान्ति यदा याः । बानां वीक्ष्यमाणाहते न ते ग्राह्या विषश्चितैः ॥15॥
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