Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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पंचदशोऽध्यायः
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शुक्र के अतिचार में राजा ग्राम और नगर धर्म से च्युत होकर जय की अभि। लाषा से परस्पर में दौड़ लगाते हैं अर्थात् परम्पर में संघर्षरत होते हैं ।1200।
धर्मार्थकामा लुप्यन्ते जायते वर्णसंकरः ।
शस्त्रेण संक्षयं विन्द्यान्महाजनमतं तदा ॥201॥
राष्ट्र में धर्म, अर्थ और काम लुप्त हो जाते हैं और सभी धर्म भ्रष्ट होकर | वर्णसंकर हो जाते हैं तथा शस्त्र द्वारा क्षत्र-विनाश होता है 1120 111
मित्राणि स्वजना: पुत्रा गुरुद्वथ्या जनास्तथा।
जहाँत प्राणवांश्च कुरुते लाशेन यत् ॥2021 शुक्र के अतिचार में लोगों की प्रवृनि इस प्रकार की हो जाती है जिसमें वे आपस में द्वेष-भाव करने लगते हैं तथा fra, गुटम्बी, पुत्र, भाई, गुरु आदि भी द्वेष में रत रहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि अपने वर्ग-जाति मर्यादा एवं प्राणों का त्याग कर देने हैं । तात्पर्य यह है कि दुराचार की प्रवृत्ति बढ़ जाने से जाति-मर्यादा का लोप हो जाता है 12721
विलीयन्ते च राष्ट्राणि भिक्षण भयेन च ।
चक्र प्रवर्तते दुर्ग भार्गवस्यातिचारत: ।1203। शुक्र के अतिचार में दुभिक्ष और भय ग गाद विलीन हो जाते हैं और दुर्ग के ऊपर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा होती है नया यह अन्य चक्र शासन के अधीन हो जाता है।1203॥
तत: श्मशानभूतास्थिकृष्णभूता मही तदा।
वसा-धिरसंकुला कागधसमाकुला ।।204।। पृथ्वी भगान भूमि वन जानी है, गर्नाओं की भ म रो करण हो जाती है तथा मांम, रुधिर और चर्बी ग युक्त होने के कारण काका, गाल और गृद्धा या युक्त हो जाती है 11 2040
वाण्युक्तानि सर्वाणि फलं यच्चातिचारकम् ।
वक्रचार प्रवक्ष्यामि पुनरस्तमनोदयात् ।।205।। जो फल सभी प्रकार के वनों का बहा गया है, वह अतिचार में भी घटित होता है । अब अस्त काल में पुनः वक्रचार का निरूपण करते हैं ।। 20511
1. जहान्स गुरु ।