Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहुसंहिता
पुणिमा के अनन्त र आषाढ़ की प्रतिपदा और द्वितीया तिथि की वर्षा से ही किया जाता है।
गन्धर्वनगर--गगन-मण्डल में उदित अनिष्टसूचक पुरविशेष को गन्धर्वनगर कहा जाता है । पुद्गल के आकार विशेष नगर के रूप में आकाश में निर्मित हो जाते है । इन्हीं मगरों द्वारा फलादेश का निरूपण करना गन्धर्वनगर सम्बन्धी निमित्त कहलाता है।
गर्भबताया जाता है कि ज्येष्ठ महीने की शुक्ला अष्टमी स चार दिन तक मेघ वायु से गर्भ धारण करता है। उन दिनों यदि मन्द वायु चले तथा आकाश में सररा मेघ दीख पड़ें तो शुभ जालना चाहिए और उन दिनों में यदि स्वाति आदि चार नक्षत्रों में ऋगानुसार वृष्टि हो तोश्रावण आदि महीनों में वैसा ही वृष्टि योग रामझना चाहिए। किसी-किसी का मत है कि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के उपरान्त गर्भदिवस आता है । गर्गादि के भस से अगहन का शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के उपरान्त जिस दिन चन्द्रमा और पूर्वापामा का संयोग होता है, उसी दिने गर्भलक्षण समझना चाहिए । चन्द्रमा के जिस नक्षत्र को प्राप्त होने पर मंघ के गर्भ रहता है, चन्द्रमा र स 195 दिनों में उस गर्भ का प्रसवकाल आता है। शुक्लपक्ष का गभं अष्णपक्ष में, कृष्णपक्ष का शुक्लपक्ष में, दिवस जात गर्भ रात में, रातमा गर्भ दिन म एवं सन्ध्या का गर्भ प्रात: और प्रातः का गर्भ संध्या को प्रसव . वर्षा करता है। मगशिरा और पौष शुक्लपक्ष का ग मन्द फल देनेवाला होता है। पॉप करणपक्ष के गर्भ का प्रमवाल श्रावण शुक्लपक्ष, माघ शुक्लपक्ष के मेध का आवण कृष्णपक्ष, माघ शाणाक्ष के मेघ का श्रावण शुक्लपक्ष, फाल्गुन शुक्लपक्ष के मेवा भागद कागपक्षा, फाल्गुन कृष्णपक्ष व मेध' का आश्विन शुक्लपक्ष, चंन शाम का गबन कृष्णपक्ष एवं चंत्र कृष्ण पक्ष के मे का कार्तिक शुपक्ष बकाल 1 पुर्व का मेघ पश्चिम और पश्चिम का मंध पूर्व में वरराता है। गर्भ में वरिट है। परिज्ञान तथा खेती का विचार किया जाता है। मर ग माया वायुक योग का विचार कर रोना भी आवश्यक है।
यात्रा -- इस प्रकरण में माय स्पसजा की यात्रा का निरूपण किया है । यात्रा के समय में होने वाले मान-शानों द्वारा शुभाशुभ फल निरूपित है। यात्रा के लिए शुभ तिथि, शुभ नक्षण, शुभ वार, शुभ योग और शुभ कारण का होना परमावश्यक है। शुभ समय में यात्रा करने में मीत्र और अनायाग़ ही कार्यसिद्धि होती है।
उत्पात वन विपरीत पनि ना ही 34 :: रात तीन प्रकार के होन दिव्य, अन्तरिक्ष और मा! नक्षत्रों का विकार, उल्का.