Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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द्वितीयोऽध्यायः
ततः प्रोवाच भगवान दिग्बासाः श्रमणोत्तमः ।
यथावस्थासु विन्यासं द्वादशांगविशारदः ॥1॥ शिष्यों के उक्त प्रश्नों के किये जाने पर द्वादशांग के पारगामी दिगम्बर श्रमणोत्तम भगवान् भद्रबाहु आगम में जिस प्रकार से उक्त प्रश्नों का वर्णन निहित है उसी प्रकार से अथवा प्रश्नकम से उत्तर देने के लिए उद्यत हुए। 111
भवद्भियदहं पृष्टो निमित्त जिनभाषितम् ।
समासपासत: सर्व तन्निबोध यथाविधि ॥2।। आप सबने मुझमे यह पूछा कि "शुभाशुभ जानने के लिए जिनेन्द्र भगवान मे जिन निमितों का वर्णन किया है, उन्हें बतलाओ।" अतः मैं संक्षेप और विस्तार गे उन सबका यथाविधि वर्णन करता हूं, अवगत करो ॥ 2 ॥
प्रकृतेर्यो न्यथाभावो विकार: सर्व उज्यते ।
एवं विकारे' विज्ञेयं भयं तत्प्रकते: सदा ॥3॥ प्रकृति का अन्यथाभाव विचार कहा जाता है। जब कभी तुमको प्रकृति का विपार दिखलाई पड़े तो उस पर से ज्ञात करना कि यहां प्रा भय होने वाला है। 3 ।।
य: प्रकृतविपर्यासः प्रायः संक्षेपत उत्पातः ।
क्षिति-गगन-दिव्यजातो यथोत्तर गुरुतरं भवति ॥4॥ प्रकृति के विपरीत घटना घटित होना उत्पात है। ये उत्पात तीन प्रकार के होते हैं. भौनिक, अन्तरिक्ष और दिव्य ! क्रमपा: उत्तरोतर ये दुःखदायक तथा काठिन होते हैं ।। 4 ।।
उल्कानां प्रभवं रूपं प्रमाण फलमाकृतिः ।
यथावत् संप्रवक्ष्यामि तन्निबोधय तत्वत: ।।5।। उल्माओं की उत्पत्ति, रूप, प्रमाण, फल और आकृति का यथार्थ वर्णन करता हूँ। आप लोग यथार्थ रूप से इभे अवमत करें ।। 5॥
I. विपास म । 2. विधारी विज्ञ ग HAI 3. रा प्रकोरन्यथा गमः मु. AI 4. या लोकः मद्रिनाल में नही । 5. गथाबन्धं ना.. | 6. निबंधित मा ।