Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
View full book text
________________
प्रस्तावना
मधा नक्षत्र में अंगराज, पूर्वाफाल्गुनी में पाण्ड्य नरपति, उत्तराफाल्गुनी में उज्जयिनी स्वामी, हस्त में दण्डाधिपति, चित्रा में कुरक्षेत्रराज, स्वाति में काश्मीर, विशाखा में इक्ष्वाकु, अनुराधा में पुगदेश, ज्येप्टा में चक्रवर्ती का विनाश, मूल में मद्रराज, एवं पूर्वापाढ़ा में काशीपति का विनाश होता है। इस प्रकार प्रत्येक नक्षत्र का फलादेश पृथक-पृथक् रूप से बताया गया है 1 कंतुओं में श्वेतकेतु और धूम केतु का फल प्राय: दोनों ग्रन्थों में समान है ।
भद्रबाहु संहिता के 22वें अध्याय में सूर्यचार का कथन है तथा यह प्रकरण वाराही संहिता के तीसरे अध्याय में आया है। भद्रबाहसंहिता (22; 2) में बताया गया है कि अच्छी किरणों बाला, रजत के समान कान्तिवाला, स्फटिक के समान निर्मल, महान कान्ति वाला सूर्य राजकल्याण और सुभिक्ष प्रदान करता है । वाराही संहिता (3; 40) में आया है कि निर्मल, गोलमण्डलाकार, दीर्घ निर्मल किरण वाना, विकाररहित शरीर वाला, चिह्न र हित मण्डलबाला जगत् का कल्याण करता है। दोनों की तुलना करने से दोनों में बहुत साम्य प्रतीत होता है। सूर्य के वर्ण का कथन करते समय कहा गया है कि अमुक वर्ण का मूर्य इष्ट या अनिष्ट करता है। इस प्रकरण में भद्रबाहगंहिता (22; 3-4, 16-17) और वाराहीसंहिता (3; 25, 29, 30) में बहुत कुछ साम्य है। अन्तर इतना ही है कि वाराहीसंहिता में इस प्रकरण का विस्तार किया गया है, पर भद्रबाहु संहिता में संक्षेप रूप सही कथन किया गया है।
चन्द्रचार का कथन भद्रबाहुसंहिता का 23वें अध्याय में और बाराहीसंहिता के चौथे अध्याय में आया है। भ० सं० (23; 3, 4) में चन्द्र गोन्नति का जैसा विवेचन किया गया है, लगभग वैसा ही विवेचन वाराही संहिता (4; 16) में भी मिलता है। भगवाहुसंहिता (23; 15-16) में अस्व, रूक्ष और काला चन्द्रमा भयोत्पादक तथा स्निग्ध, शुक्ल और सुन्दर चन्द्र सुखोत्पादक तथा समद्धिकारक माना गया है। श्वेत, पीत, सम और कृष्ण वर्ण का चन्द्रमा क्रमशः ब्राह्मणादि चारों वर्गों के लिए मुखद माना गया है। मुन्दर चन्द्र सभी के लिए सुखदायक होता है ! वाराही महिता (4; 29-30) में बताया गया है कि भस्मतुल्य रूखा, अरुण वर्ण, किरणहीन, श्यामवर्ण चन्द्रमा गयकारक एवं मंग्राम-मूचक होता है। हिमवण, कुन्दपुर, स्फटिकमणि के समान चन्द्रमा जगत् का कल्याण करने वाला होता है। उपयुक्त दोनों वर्णन तुल्य हैं। भद्रबाहुसंहिता में चन्द्र शृगोन्नति का उतना विस्तार नहीं है, जितना विस्तार वाराही संहिता में है। तिथियों के अनुसार विकृत वर्ण के चन्द्रमा र जितना विस्तृत फलादेश भद्रबाहु संहिता (23; 9-14) में आया है, उतना वा राही संहिता में नहीं। इसी प्रकार चन्द्रमा में अन्य ग्रहों के प्रवेश का काथन भद्रवाह मंहिता (23; 17-19) में अपने ढंग का है। चन्द्रमा की वीथियों का कथन भ० सं० (22; 25-30) में है, यह