Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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प्रस्तावना
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की मूल कृति आज उपलब्ध नहीं है, पर उनके वचनों का कुछ शार अवश्य विद्यमान है। इस रचना का संकलन 8-9
में अवश्य
होगा
हाँ, यह सत्य है कि इस ग्रन्थ में प्रक्षिप्त अंश अधिक बढ़ते गये हैं । इनका प्रथम खण्ड भी पीछे से जोड़ा गया है तथा इसमें उत्तरोत्तर परिवर्द्धन और संवर्द्धन किया जाता रहा है। द्वितीय खण्ड का स्वप्नाध्याय भी अर्वाचीन है तथा इसमें 28, 29 और 30 वें अध्याय तो और भी अर्वाचीन हैं । अतएव यह स्वीकार करने में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं है कि इस ग्रन्थ का प्रणयन एक समय पर नहीं हुआ है. विभिन्न समय पर विभिन्न विद्वानों ने इस ग्रन्थ के कलेवर को बढ़ाने की चेष्टा की है । "भद्रबाहुवचो यथा" का प्रयोग प्रमुख रूप से 15वें अध्याय तक ही मिलता है। इसके आगे इस वाक्य का प्रयोग बहुत कम हुआ है, इससे भी पता चलता है कि संभवतः 15 अध्याय प्राचीन भद्रबाहु संहिता के आधार पर लिखे गये होंगे । और संहिता ग्रन्थों की परम्परा में रखने के लिए या इसे वाराही संहिता के समान उपयोगी और ग्राह्य बनाने के लिए, आगे वाले अध्यायों श्रा कलेवर बढ़ाया जाता रहा है। श्री मुख्तार साहब ने जो अनुमान लगाया है कि ग्वालियर के भट्टारक धर्मभूषण जी की कृपा का यह फल है तथा बामदेव ने या उनके अन्य किसी शिष्य ने यह ग्रन्थ बनाया है, वह पूर्णतया सही तो नहीं है । इस अनुमान में इतना अंश तथ्य है कि कुछ अध्याय उन लोगों की कृपा से जोड़े गये होंगे या परिवर्तित हुए होंगे। इस ग्रन्थ के 15 अध्याथ तो निश्चयतः प्राचीन हैं और ये भद्रबाहु के वचनों के आधार पर ही लिखे गये हैं । शैली और क्रम 25 अध्यायों तक एक-सा है, अत: 25 अध्यायों को प्राचीन माना जा सकता है ।
भद्रबाहुसंहिता का प्रचार जैन सम्प्रदाय में इतना अधिक था, जिससे यह श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से समादृत थी। इसकी प्रतियां पूना, पाटण, बम्बई, हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान मन्दिर पाटण, जैन सिद्धान्त भवन आरा आदि विभिन्न स्थानों पर पायी जाती है। पूना की प्रति में 26वें अध्याय के अन्त में वि० स० 1504 लिखा हुआ है और समस्त उपलब्ध प्रतियों
यही प्रति प्राचीन है । अत: इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि इसकी रचना वि० सं० 1504 से पहले हो चुकी थी। श्री मुख्तार साहब का अनु मान इस लिपिकाल से खंडित हो जाता है और इन 26 अध्यायों की रचना स्वी सत् की पन्द्रहवीं शती के पहले हो चुकी थी। इस ग्रन्थ के अत्यधिक प्रचार का एक सबल प्रमाण यह भी है कि इसके पाठान्तर इतने अधिक मिलते हैं, जिससे इसके निश्चित स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता | जैन सिद्धान्त भवन आरा की दोनों प्रतियों में भी पर्याप्त पाद-मंद मिलता है । अत: इस ग्रन्थ को सर्वथा भ्रष्ट या कल्पित मानना अनुचित होगा। इसका प्रचार उतना अधिक रहा है, जिससे रामायण और महाभारत के समान इसमें प्रक्षिप्त असो की भी
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