Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 1
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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प्रस्तावना
बस 195 दिन तथा वर्तमान 196वां दिन ही माना है, जो 'भद्रबाहुसंहिता के नाक्षत्र मास के तुल्य है । गर्भ का धारण और वर्षण प्रभाव सामान्यतया एक हैं, परन्तु भद्रबाहु संहिता के कथन में विशेषता है । भद्रबाहुसंहिता में गर्भधारण का वर्णन महीनों के अनुसार किया है। वाराहीसंहिता में यह कथन नहीं है ।
उत्पात प्रकरण दोनों ही संहिताओं में है। भद्रबाहुसंहिता के चौदहवें अध्याय में और वाराही संहिता के छियालीसवें अध्याय में यह प्रकरण है । भद्रबाहु संहिता में उत्यातों के दिव्य, अन्तरिक्ष और भौम ये तीन शद किये हैं तथा इनका वर्णन बिना किसी क्रम के मनमाने ढंग से किया है। इस ग्रन्थ के वर्णन में किसी भी प्रकार का क्रम नहीं है। दिव्य उत्पातों के साथ भौम उत्पातों का वर्णन भी किया गया है । पर वाराही संहिता में अशुभ, अनिष्टकारी, भयकारी, राजभयोत्पादक, नगरभयोत्पादका, सुभिक्षदायक आदि का वर्णन सुव्यवस्थित ढंग से किया है। लिंगवैकत. अग्निवकृति वनवैकत, जन्मवेयत, नेत, प्रसवबकृत, चतुष्यादवकृत, वायव्ययकृत, मृगपक्षी विकार एवं शकालाजेन्द्रकीलवकृत इत्यादि विभागों का वर्णन किया है । वाराहमिहिर का यह इत्यात प्रकरण भवबाहुसंहिता के उत्पात प्रकरण की अपेक्षा अधिक विस्तृत और व्यवस्थित है। वैसे वाराहमिहिर ने केवल 99 श्लोकों में उत्पात का वर्णन किया है, जबकि भद्रबाहुसंहिता में 182 श्लोकों में उत्सातों का कयन किया गया है। उत्पात का लक्षण प्रायः दोनों का समान है । 'प्रकृतेर्यो विपर्यास: स: उत्पात: प्रकीर्तितः' (भ० सं० 14, 2) तथा वाराह ने 'प्रकृतेरन्यत्वमुत्पात:' (वा० सं० 45, 1)। इन दोनों लक्षणों का तात्पर्य एक ही है । राजमन्त्री, राष्ट्रसम्बन्धी फलादेश प्राय. दोनों ग्रन्थों में समान
शुक्रवार दोनों ही ग्रन्थों में है । भद्रबाहुसंहिता के पन्द्रहवं अध्याय में और वाराही संहिता के नौवें अध्याय में यह प्रकरण आया है। उल्या, सन्ध्या, वात, गन्धर्वनगर आदि तो आकस्मिक घटनाएँ हैं, अतः दैनन्दिन शुभाशुभ को अवगत करने के लिए ग्रहचार का निरूपण करना अत्यावश्यक है । यही कारण है कि संहिताकारों ने ग्रहों के वर्णनों को भी अपने ग्रन्थों में स्थान दिया है। राष्ट्रविप्लव, राजभय, नगरभय, संग्राम, महामारी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुभिक्ष, दुभिक्ष आदि का विवेचन ग्रहों की गति के अनुसार करना ही अधिक युक्तिसंगत है। अतएव संहिताकारों ने ग्रहों के चार को स्थान दिया है। शुक्रवार को अन्य ग्रहों की अपेक्षा अधिक उपयोगी और बलवान कहा गया है।
शुक्र के गमन-मार्ग को, जो कि 27 नक्षत्रात्मक है, वीधियों में विभक्त किया गया है। नाग, गज, ऐशवण, वृषभ, गो, जराय, अज, मृग और वैश्वानर ये वीथियाँ भद्रवाहसंहिता में आयी हैं (15 अ. 44-48 श्लो०) और नाग, गज, ऐरावत, वृषभ, गो, जरद्गव, मृग और दहन ये वीथियां वाराही संहिता