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प्रस्तावना
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विद्यानन्द इसी ग्रन्थ में एक दूसरी जगह और भी लिखते हैं' कि 'जो वस्त्रादि ग्रन्थ रहित हैं वे निर्ग्रन्थ हैं और जो वस्त्रादि ग्रन्थसे सम्पन्न हैं वे निर्ग्रन्थ नहीं हैं -ग्रन्थ हैं, क्योंकि प्रकट है कि बाह्य ग्रन्थके सद्भावमें अन्तर्ग्रन्थ ( मूर्छा ) नाश नहीं होता । जो वस्त्रादिकके ग्रहण में भी निर्ग्रन्थता बतलाते हैं उनके स्त्री आदिके ग्रहणमें मूर्छाके अभावका प्रसङ्ग आवेगा । विषयग्रहण कार्य है और मूर्छा उसका कारण है और इसलिये मूर्छारूप कारणके नाश हो जानेपर विषयग्रहणरूप कार्य कदापि सम्भव नहीं है । जो कहते हैं कि 'विषय कारण है और मूर्छा उसका कार्य है' तो उनके विषय के अभाव में मूर्छाको उत्पत्ति सिद्ध नहीं होगी। पर ऐसा नहीं है, विषयोंसे दूर वनमें रहने वालेके भी मूर्छा देखी जाती है, अतः मोहोदयसे अपने अभीष्ट अर्थ में मूर्छा होती है और मूर्छासे अभीष्ट अर्थका ग्रहण होता है । अतएव वह जिसके है स्वयं उसके निग्रन्थता कभी नहीं बन सकती । अतः जैनमुनि वस्त्रादि ग्रन्थ रहित ही होते हैं ।'
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सूक्ष्मप्रज्ञ विद्यानन्दके इन युक्तिपूर्ण सुविशद विचारोंसे प्रकट है कि उनकी चर्या कितनी विवेकपूर्ण और जैनमार्गाविरुद्ध रहती थी और वे नान्यको कितना अधिक महत्व प्रदान करते थे तथा मुनिमात्र के लिये उसका युक्ति और शास्त्र से निष्पक्ष समर्थन करते थे । वे यह सदैव अनुभव करते थे कि यदि साधु लज्जा अथवा अन्य किसी कारण से नाग्न्यपरीषहको नहीं जीत सकते हैं और इसलिये वस्त्रादि ग्रहण करते हैं तो वे कदापि निर्ग्रन्थ और अप्रमत्त नहीं हो सकते हैं; क्योंकि वस्त्रादिग्रहण तभी होता है जब मूर्छा होती है । मूर्छाके अभाव में वस्त्रग्रहण हो ही नहीं सकता ।
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"वस्त्रादिग्रन्थसम्पनास्ततोऽन्ये नेति गम्यते बाह्यग्रन्थस्य सद्भावे ह्यन्तर्ग्रन्थो न नश्यति ॥ ये वस्त्रादिग्रहेऽप्याहुनियन्थत्वं यथोदितम् । मूर्च्छानुद्भूतिस्तेषां स्त्र्याद्यादानेऽपि किं न तत् । विषयग्रहणं कार्य मूर्छा स्यात्तस्य कारणम् । न च कारण विध्वंसे जातु कार्यस्य सम्भव ॥ विषयः कारणं मूर्छा तत्कार्यमिति यो वदेत् । तस्य मूर्च्छादयोऽसत्त्वे विषयस्य न सिद्ध्यति ॥ तस्मान्मोहोदयान्मूर्छा स्वार्थे तस्य ग्रहस्ततः । स, यस्तास्ति स्वयं तस्य न नैग्रन्थ्यं कदाचन ॥"
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- तत्त्वार्थ श्लो० पृ० ५०७ ।
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