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आप्तपरोक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका १९, २० वार्येत ? न हि केषाञ्चित्प्राणिनां निग्रहानुग्रहकरणात्पूर्व शरीरमीश्वरस्य प्रयुज्यते' ततोऽपि पूर्व शरीरान्तरप्रसङ्गात् । अनादिशरीरसन्ततिसिद्धरशरीरत्वविरोधात् । न चैकेन निर्माणशरीरेण नानादिग्देशतिप्राणिविशेषनिग्रहानुग्रहविधानमीश्वरस्य घटते, यतो युगपन्नानानिर्माणशरीराणि तस्य न स्युः। तदभ्युपगमे च तन्निर्माणाय नानाशरीरान्तराणि भवेयुरित्यतादिनानाशरीरसन्ततयः कथमोश्वरस्य न प्रसज्येरन् ? यदि पुनरेकेन शरीरेण नानाशरीराणि कुर्वीत युगपत्क्रमेण वा तदैकेनैव देहेन नानादिग्देशतिप्राणिगणनिग्रहानुग्रहावपि तथैव कुर्वीत । तथा च कणादगजासुराद्यनुग्रह-निग्रहविधानायोलकादितदनुरूपशरीरनानात्वकथनं न युक्तिपथप्रस्थायि स्यात् ।
८७. यदि पुनर्न देहान्तराद्विना स्वदेहं जनयेत्, नापि देहान्तरात्, कैसे दूर की जा सकती है ? यह तो माना ही नहीं जा सकता है कि किन्हीं प्राणियोंके निग्रह और अनुग्रह करनेके पहले ईश्वरके शरीर विद्यमान है क्योंकि उस शरीरके पहले भी कोई अन्य शरीरका अस्तित्व मानना पड़ेगा, उसके पहले भी कोई दूसरा शरीर मानना होगा और इस तरह ईश्वरके अनादि शरीरपरम्परा सिद्ध होनेसे वह अशरीरी नहीं बन सकेगा। दूसरी बात यह है कि उस निर्मित एक शरीरके द्वारा नाना दिशाओं और नाना देशों में रहनेवाले प्राणियोंका विशेष निग्रह और अनुग्रह करना ईश्वरके नहीं बन सकता है। यदि बनता तो एक-साथ अनेक शरीर उसके प्रसक्त न होते । और उन अनेक शरीरोंके माननेपर उनको बनानेके लिये दूसरे अनेक शरीर और होना चाहिये और इस तरह अनादि नाना शरोरोंकी परम्पराएँ ईश्वरके क्यों प्रसक्त न होंगी? अगर कहो वह कि एक शरीरसे नाना शरीरोंको कर लेता है तो एक-साथ अथवा क्रमसे उस शरीरसे ही नाना दिशाओं और देशोंमें रहनेवाले प्राणियोंके निग्रह और अनुग्रहको भी उसी प्रकार कर देगा । फिर कणादके उपकार और गजासुरके अनुपकार करनेके लिये उलूकादिरूपसे नाना शरोरोंका वर्णन युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। अर्थात एक ही शरोरद्वारा विभिन्न जीवोके निग्रह और अनुग्रह दोनों हो जायेंगे और इसलिये ईश्वरके उलूकादि अनेक अवतारोंका प्रतिपादन कुछ भी अर्थ नहीं रखता।
८७. यदि कहा जाय कि 'ईश्वर न तो शरीरान्तरके बिना अपने __ 1. द स प 'प्रयुज्यत' ।
2. द 'अपि' पाठो नास्ति ।
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