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आप्तपरीक्षा - स्वोपज्ञटीका
[ कारिका ८३ प्रधानस्य चानित्या' द्वयक्तादनर्थान्तरभूतस्य नित्यतां प्रतीयन् पुरुषस्यापि ज्ञानादशाश्वतादनर्थान्तरभूतस्य नित्यत्वमुपैतु, सर्वथा विशेषाभावात् । केवलं ज्ञानपरिणामाश्रयस्य प्रधानस्यादृष्टस्यापि परिकल्पनायां ज्ञानात्मकस्य च पुरुषस्य स्वार्थव्यवसायिनो दृष्टस्य हानिः पापीयसी स्यात् । " दृष्टहानिरदृष्टपरिकल्पना च पापीयसी" [ ] इति सकलप्रेक्षावतामभ्युपगमनीयत्वात् । ततस्तां परिजिहीर्षता पुरुष एव ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणः कश्चित् प्रक्षीणकर्मा सकलतत्त्वसाक्षात्कारी मोक्षमार्गस्य प्रणेता पुण्यशरीरः पुण्यातिशयोदये सन्निहितोक्तपरिग्राहकविनेयमुख्य: प्रतिपत्तव्यः, तस्यैव मुमुक्षुभि: प्रेक्षावद्भिः स्तुत्यतो
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लोग अनित्य स्वरूपसंवेदनात्मक भी पुरुषको निरतिशय नित्य ( अपरिणामी नित्य ) प्रतिपादन करते हैं, पर अनित्य अर्थसंवेदन से अभिन्न उसे अनित्यनाके भयसे स्वीकार नहीं करते । वास्तव में जब अनित्य स्वरूपसंवेदनसे पुरुष अभिन्न रह कर भो निरतिशय नित्य बना रह सकता है तो अनित्य ज्ञानसे भी वह अभिन्न रह कर निरतिशय नित्य बना रह सकता है—उसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये ।
अपि च, जब आप अनित्य महदादि व्यक्त से अभिन्नभूत प्रधान नित्यता ही घोषित करते हैं-- अनित्य महदादि व्यक्त से अभिन्न होनेपर भी उसके अनित्यताका प्रसंग नहीं आता है तो अनित्य ज्ञानसे अभिन्नभूत पुरुष के भी नित्यता स्वीकार करिये, क्योंकि दोनों जगह कोई विशेषता नहीं है । सिर्फ ज्ञानपरिणामके आश्रयभूत प्रधानकी, जो कि अदृष्ट हैदेखने में नहीं आता, परिकल्पना और ज्ञानस्वरूप स्वार्थव्यवसायी पुरुषकी, जो दृष्ट है - देखने में आता है, हानि प्राप्त होती है और जो दोनों ही पाप हैं - अहितकर हैं । " दृष्ट - देखे गयेको न मानना और अदृष्ट-- नहीं देखे गयेको कल्पित करना पाप है -- अश्रेयस्कर है" [ ] यह सभी विवेकी चतुर पुरुषोंने स्वीकार किया है । अतः इस प्राप्त अदृष्टपरिकल्पना और दृष्टहानिरूप पापको दूर करना चाहते हैं तो ज्ञान और दर्शन उपयोगस्वरूप किसी विशिष्ट पुरुषको ही कर्मों का नाशक, सर्वज्ञ, मोक्षमार्गका उपदेशक, उत्तम शरीरवाला, विशिष्ट पुण्यकर्मके उदयवाला और निकटवर्ती एवं उनके उपदेशग्राहक गणधरादिविनेयों में श्रेष्ठ ऐसा मानना चाहिये, वही विवेकी मुमुक्षुओं द्वारा स्तुति किये जाने योग्य
1. मु ' चानित्यत्वाद्वय' ।
7 द प्रतौ 'प्रेक्षावद्भिः' नास्ति ।
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