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कारिका ८६] परमपुरुष-परीक्षा कारकाणां कर्मादीनां क्रियाणांप रिस्पन्दलक्षणानां धात्वर्थलक्षणानां च दृष्टो भेदो विरुद्धचत एव, तस्य प्रतिभासमानस्यापि प्रतिभासमात्रान्तःप्रवेशाभावात्, स्वयंप्रतिभासमानज्ञानविषयतया प्रतिभासमानतोपचारात् स्वयंप्रतिभास्यमानत्वेन व्यवस्थानात् । न च प्रतिभासमात्रमेव तद्वेदं प्रतिभासं जनयति, तस्य तदन्तःप्रविष्टस्य जन्यत्वविरोधात् प्रतिभासमात्रस्य च जनकत्वायोगात् । "नैकं स्वस्मात्प्रजायते" [आप्तमी. का. २४] इत्यपि सक्तम् । तथा कर्मद्वैतस्य फलद्वैतस्य लोकद्वैतस्य च विद्याऽवि. द्याद्वयवद्बन्धमोक्षद्वयवच्च प्रतिभासमानप्रमाणविषयतया प्रतिभासमानस्यापि प्रमेयतया व्यवस्थितेः । प्रतिभासमात्रान्तःप्रवेशानुपपत्तरभावापादनं वेदान्तवादिनामनिष्टं सक्तमेव समन्तभद्रस्वामिभिः। तथा हेतोरद्वैतसिद्धिर्यदि प्रतिभासमात्रव्यतिरेकिणः प्रतिभासमानादपि यदे
परस्पर सापेक्ष सिद्ध होते हैं । और इसलिये 'सर्वथा अद्वैत एकान्तमें कर्मादिक कारकों और परिस्पन्दात्मक तथा धात्वर्थात्मक क्रियाओंका जो भेद देखने में आता है वह विरोधको प्राप्त होता ही है। क्योंकि वह प्रतिभासमान होनेपर भी प्रतिभासमात्रके अन्तर्गत नहीं आ सकता है, कारण स्वयं प्रतिभासमान ज्ञानका विषय होनेसे उसमें प्रतिभासमानताका उपचार किया जाता है अर्थात् उपचारसे उसे प्रतिभासमान कह दिया जाता है, स्वयं तो वह प्रतिभास्यरूपसे हो व्यवस्थित होता है। दूसरे, प्रतिभासमात्र ही क्रिया-कारकादिके भेदप्रतिभासको उत्पन्न नहीं कर सकता; क्योंकि क्रिया-कारकादिका भेदप्रतिभास प्रतिभासमात्रके अन्तर्गत होनेसे जन्य नहीं हो सकता है और प्रतिभासमात्र उसका जनक नहीं हो सकता है। कारण, "जो एक है वह अपनेसे उत्पन्न नहीं होता अर्थात् एक स्वयं ही जन्य और स्वयं ही जनक दोनों नहीं हो सकता है" [ आप्तमो० का० २४ ], यह भी ठीक ही कहा है। तथा दो कर्म, दो फल और दो लोक, विद्या, अविद्या इन दोकी तरह और बन्ध, मोक्ष इन दोकी तरह स्वयं प्रतिभासमान प्रमाणके विषयरूपसे प्रतिभासमान होनेपर भी उनकी प्रमेयरूपसे व्यवस्था है और इसलिए वे प्रतिभासमात्रके अन्तर्गत नहीं आ सकते । अतः कर्मादि द्वैतके अभावका प्रसङ्ग, जो वेदान्तियोंके लिये अनिष्ट है-इष्ट नहीं है, समन्तभद्रस्वामीने ठोक ही कहा है। तथा 'यदि प्रतिभासमात्रसे भिन्न प्रतिभासमान हेतुसे भी अद्वैतकी सिद्धि
1. मु स 'व्यवस्थितेः' इति पाठोऽिधकः।। 2. मु स 'यदी'।
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