Book Title: Aptapariksha
Author(s): Vidyanandacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 432
________________ कारिका १११] अर्हत्कर्मभूभृत्भेतृत्व-सिद्धि ३१९ २९१. द्विविधा हि कर्मभूभृतः, केचिदागामिनः, परे पूर्वभवसन्तानसञ्चिताः। तत्रागामिना कर्मभूभृतां विपक्षस्तावत्संवरः, तस्मिन्सति तेषामनुत्पत्तेः। संवरो हि कर्मणामानवनिरोधः। स चात्रवो मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगविकल्पात्पञ्चविधः, तस्मिन्सति कर्मणामा. स्रवणात् । "कर्मागमनहेतुरास्त्रवः" [ ] इति व्यपदेशात् । कण्यिास्त्रवन्ति आच्छन्ति यस्मादात्मनि स आस्रव इति निर्वचनात् । स एव हि बन्धहेतुविनिश्चितःप्राग्विशेषेण । मिथ्याज्ञानस्य मिथ्यादर्शनेऽन्तर्भावात् । तन्निरोधः पुनः कात्य॑तो देशतो वा। तत्र कात्य॑तो गुप्तिभिः सम्यग्योगनिग्रहलक्षगाभिविधीयते। समितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैस्तु देशतस्तनिरोधः सिद्धः । सम्यग्योगनिनहस्तु साक्षादयोगकेवलिनश्चरमक्षणप्राप्तस्य प्रोच्यते, तस्यैव सकल $ २९१. प्रकट है कि कर्मपर्वत दो प्रकारके हैं-एक तो आगामी ( आगे होनेवाले ) और दूसरे पूर्वपर्यायपरम्परासे संचित ( इकट्ठे ) हए। उनमें आगामी कर्मपर्वतोंका विपक्ष संवर है, क्योंकि उसके होनेपर वे ( आगामी कर्मपर्वत, उत्पन्न नहीं होते हैं। निःसन्देह कर्मों के आसक्के निरोध ( रुक जाने ) का नाम संवर है। तात्पर्य यह कि कर्मोंके आनेके जो द्वार हैं उनका बन्द हो जाना संवर है। और वे कर्मोंके आनेके द्वार, जिन्हें आस्रव कहा जाता है, पाँव हैं:-१ मिथ्यादर्शन, २ अविरति, ३ प्रमाद, ४ कषाय और ५ योग। इनके होनेपर कर्म आते हैं। इसी कारण कर्मोंके आनेके कारणोंको 'आस्रव' कहा जाता है, क्योंकि 'कर्म जिससे आस्रव होते हैं अर्थात् आते हैं वह आस्रव है' ऐसा 'आस्रव' शब्दका निर्वचन ( व्युत्पत्ति ) है। वही बन्धकारणरूपसे पहले विशेषरूपसे निर्णीत किया गया है । मिथ्याज्ञानका मिथ्यादर्शनमें अन्तर्भाव ( समावेश ) हो जाता है अतः वह स्वतंत्र आस्रव नहीं है और इसलिये आस्रव पाँच ही प्रकार का है। आस्रवका निरोध सम्पूर्णरूपसे अथवा एक-देशसे होता है। सम्पूर्णरूपसे निरोध तो गुप्तियों द्वारा, जो मन, वचन, कायके योग ( क्रिया ) को सम्यक् प्रकारसे रोकनेरूप है, किया जाता है और अंशतः निरोध समितियों, धर्मों, अनुप्रेक्षाओं, परीषहजयों और चारित्रोंसे सिद्ध होता है। उनमें पूर्णतः मन, वचन, कायके योगका रुकनारूप संवर अन्तिमसमयवर्ती अयोगकेवलोके कहा है, क्योंकि वही 1. मु स प 'सवात्' । 2. 'हेतोरासवः'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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