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कारिका ११२] अर्हत्कर्मभूभृत्भेतृत्व-सिद्धि
३२३ ६ २९२. सञ्चितानां तु निर्जरा विपक्षः। सा च द्विविधा, 'अनुपक्रमौपक्रमिकी च । तत्र पूर्वा यथाकालं संसारिणः स्यात् । औपक्रमिको तु तपसा द्वादश विधेन साध्यते संवरवत् । यथैव हि तपसा सञ्चितानां कर्मभूभृतां निर्जरा विधीयते तथाऽऽगामिनां संवरोऽपीति सञ्चितानां कर्मणां निर्जरा विपक्षः प्रतिपाद्यते ।
$ २९३. अर्थतस्य कर्मणां विपक्षस्य परमप्रकर्षः कुतः सिद्धः ? य तस्तेषामात्यन्तिकः क्षयः स्यादित्याह
तत्प्रकर्षः पुनः सिद्धः परमः परमात्मनि ।
तारतम्यविशेषस्य सिद्धरुष्णप्रकर्षवत् ॥११२॥ ६ २९४. यस्य तारतम्यप्रकर्षस्तस्य क्वचित्परमः प्रकर्षः सिध्यति, यथोष्णस्य, तारतम्यत्रकर्षश्च कर्मणां विपक्षस्य संवरनिर्जरालक्षणस्यानिरोगी आदि कर्मवैषम्य नहीं बन सकेगा। अतः सिद्ध हुआ कि आगामी कर्मोंका विपक्ष संवर है।
६ २९२. सञ्चित कर्मपर्वतोंका विपक्ष निर्जरा है और वह दो प्रकारकी है-अनुपक्रमा और औपक्रमिकी। उनमें पहली अनुपक्रमा निर्जरा यथासमय ( समय पाकर ) सब संसारी जीवोंके होती है और औपक्रमिकी बारह प्रकारके तपोंसे साधित होती है, जैसे संवर। प्रकट है कि जिस प्रकार तपसे संचित कर्मपर्वतोंकी निर्जरा की जाती है उसी प्रकार उससे आगामी कर्मपर्वतोंका संवर भी किया जाता है। अतएव संचित कर्मोंका विपक्ष निर्जरा कही जाती है।
$ २९३. शंका-कर्मोंके इस विपक्ष ( संवर और निर्जरा ) का परमप्रकर्ष कैसे सिद्ध है ? जिससे उनका आत्यन्तिक अभाव हो ?
समाधान-इसका आचार्य अगली कारिकामें उत्तर देते हैं'कर्मोंके विपक्षका परमप्रकर्ष परमात्मामें सिद्ध है, क्योंकि उसकी तरतमता ( न्यूनाधिकता ) विशेष पाई जाती है, जैसे उष्ण प्रकर्ष ।'
$ २९४. जिसके तारतम्य (न्यूनाधिक्य ) का प्रकर्ष होता है उसका कहीं परमप्रकर्ष सिद्ध होता है, जैसे उष्णस्पर्शका। और संवर और
1. व 'अनुपक्रमा चौपक्रमिकी च'। 2. मु स द प 'उपक्रमकी' । 3. मुसप 'प्रसिद्ध'। 4. द 'परमप्रकर्षः'।
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