Book Title: Aptapariksha
Author(s): Vidyanandacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 434
________________ कारिका १११ ] अर्हत्कर्मभूभृत्भेतृत्व-सिद्धि 2 “स आस्रव:" [ तत्त्वार्थसू० ६ २ ] इति वचनात् । मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषायाणामात्रवत्वं न स्यादिति न मन्तव्यम्, योगस्य सकलास्रवव्यापकत्वात्तदग्रहणादेव तेषां परिग्रहात्, तन्निग्रहे तेषां निग्रहप्रसिद्धेः । योगनिग्रहे हि मिथ्यादर्शनादीनां निग्रहः सिद्ध एव अयोगकेवलिनि तदभावात् । कषायनिग्रहे तत्पूर्वास्त्रवनिरोधः क्षोणकषाये । प्रमादनिग्रहे 'तत्पूर्वास्रवनिरोधोऽप्रमत्तादौ । सर्वा (सर्व देशा) विरति निरोधे तत्पूर्वास्त्रवमिथ्यादर्शन निरोधः प्रमत्ते संयतासंयते च । मिथ्यादर्शननिरोधे तत्पूर्वास्रवनिरोधः सासादनादौ । 'पूर्वपूर्वास्रवनिरोधे 'ह्य तशेतरात्रवनिरोधः साध्य एव न पुनरुत्तरास्रवनिरोधे पूर्वास्त्रवनिरोधः, वर्गणा आश्रयसे जो आत्मप्रदेशों में चलन होता है वह मनोयोग है । इस तरह योगके तीन भेद हैं और "इन तीनों योगोंको आस्रव" कहा है [ तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र २] । 5 शङ्का -- यदि योग आस्रव है तो मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद और कषाय ये आस्रव नहीं होना चाहिए ? समाधान - यह मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि योग मिथ्यादर्शनादि समस्त आस्रवों में व्याप्त है और इसलिये उसके ग्रहणसे ही उन सबका ग्रहण हो जाता है । अतएव उसका निग्रह होनेपर उन सबका निग्रह प्रसिद्ध है । स्पष्ट है कि योगका निग्रह होनेपर मिथ्यादर्शन आदिका भी अभाव अवश्य हो जाता है, क्योंकि अयोगकेवली में उन सबका अभाव है । क्षीणकषायमें कषायका निग्रह होनेपर उसके पूर्ववर्ती आस्रवोंका अभाव है । अप्रमत्तादिकमें प्रमादका निग्रह होनेपर उसके पूर्व के आस्रवोंका निरोध है । प्रमत्त और संयतासंयत में क्रमशः सम्पूर्ण और एकदेशसे अविरतिका अभाव होनेपर वहाँ उसका पूर्ववर्ती आस्रव मिथ्यादर्शन नहीं है । सासादनादिकमें मिथ्यादर्शनका अभाव हो जानेपर उसके पूर्ववर्ती आस्रवका निरोध है । किन्तु पहले-पहलेके आस्रवके अभाव होनेपर आगेआगे आस्रवका अभाव साध्य है - वह हो, नहीं भी हो। पर आगेके आस्रवका निरोध होनेपर पहले के आस्रवका निरोध साध्य अर्थात् भजनीय 1. मु प 'हि' नास्ति । 2. मु स प 'निरोधवत्' । 3. मु स प 'पूर्वास्रवनिरोधवत्' । 4, 5. मु स प 'निरोधवत्' । 6. ब ' सर्व पूर्वा । 7. मु स प 'ह्य ुत्तरास्रव' । २१ Jain Education International ३२१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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