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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ११५ तत्स्कन्धराशयः प्रोक्ता भूभृतोऽत्र समाधितः । जीवाद्विश्लेषणं भेदः सतो नात्यन्तसंक्षयः ॥११५॥ $ २९६. जीवं परतन्त्रीकुर्वन्ति, स परतन्त्री क्रियते वा यस्तानि कर्माणि, जीवेन वा मिथ्यादर्शनादिपरिणामैः क्रियन्ते इति कर्माणि । तानि द्विप्रकाराणि-द्रव्यकर्माणि भावकर्माणि च। तत्र द्रव्यकर्माणि ज्ञानावरणादीन्यष्टौ मूलप्रकृतिभेदात् । तथाऽष्टचत्वारिंशदुत्तरशतम्, उत्तरप्रकृतिविकल्पात् । तथोत्तरोत्तरप्रकृतिभेदादनेकप्रकाराणि । तानि च पुद्गलपरिणामात्मकानि जीवस्य पारतन्त्र्यनिमित्तत्वात्; निगडादिवत् । क्रोधादिभिर्व्यभिचार इति चेत्, न, तेषां जीवपरिणामानां पारतन्त्र्यस्वरूपत्वात् । पारतन्त्र्यं हि जीवस्य क्रोधादिपरिणामो न पुनः पारतन्त्र्यनिमित्तम्।
'इन द्रव्य और भावकोंकी स्कन्धराशिको यहाँ संक्षेपमें 'पर्वत' कहा गया है। उनको जीवसे पृथक् करना उनका भेदन है । यहाँ भेदनका अर्थ नाश नहीं है क्योंकि जो सत् है उसका अत्यन्त नाश नहीं होता।'
$ २९६. जो जीवको परतन्त्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं। अथवा, जीवके द्वारा मिथ्यादर्शनादि परिणामोंसे जो किये जाते हैं-उपाजित होते हैं वे कर्म हैं। वे दो प्रकारके हैं-१ द्रव्यकर्म और २ भावकर्म। उनमें द्रव्यकर्म मलप्रकृतियोंके भेदसे ज्ञानावरण आदि आठ प्रकारका है तथा उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे एक-सौ अड़तालीस प्रकारका है। तथा उत्तरोत्तर प्रकृतियोंके भेदसे अनेक प्रकारका है और वे सब पुद्गलपरिणामात्मक हैं, क्योंकि वे जीवकी परतन्त्रतामें कारण हैं, जैसे निगड ( बन्धनविशेष ) आदि।
शंका-उपयुक्त हेतु (जीवकी परतन्त्रतामें कारण) क्रोधादिके साथ व्यभिचारी है ? __समाधान-नहीं; क्योंकि क्रोधादि जीवके परिणाम हैं और इसलिये वे परतंत्रतारूप हैं-परतन्त्रतामें कारण नहीं। प्रकट है कि जीवका क्रोधादिपरिणाम स्वयं परतन्त्रता है, परतन्त्रताका कारण नहीं । अतः उक्त हेतु क्रोधादिके साथ व्यभिचारी नहीं है ।
1. मु स प 'स्वरूपात्' ।
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