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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका १२४ इति तत्त्वार्थशास्त्रादौ मुनीन्द्र-स्तोत्र-गोचरा। प्रणीताऽऽप्तपरीक्षेयं विवाद-विनिवृत्तये ॥ १२४ ॥ विद्यानन्द-हिमाचल-मुखपद्म-निनिर्गता सुगम्भीरा। आप्तपरीक्षाटोका गङ्गावच्चरतरं जयतु ॥१॥
उसके यथार्थ अर्थकी सिद्धि के लिये यह 'आप्तपरीक्षा' रूप कथन-व्याख्यान किया है अर्थात् उसी 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि प्रसिद्ध स्तोत्रपर प्रस्तुत 'आप्तपरीक्षा' लिखी है।' ___ 'इस तरह 'तत्त्वार्थशास्त्र' के आदिमें किये गये मुनीन्द्र (श्रीगृद्धपिच्छाचार्य) के स्तोत्र-'मोक्षमार्गस्य' इत्यादि स्तवनकी विषयभत यह 'आप्तपरोक्षा' विरुद्ध वादों (सिद्धान्तों) का सम्पूर्णतया निराकरण करनेके लिये रची गई है।'
तीनों कारिकाओंका भावार्थ-प्रस्तुत 'आप्त-परीक्षा' आप्तका स्वरूप निर्णीत करनेके लिये लिखी गई है, जिससे गुणग्राही सत्पुरुषों तथा विद्वानोंको यह मालूम होसके कि आप्त कौन है ? और उसका स्वरूप कैसा होना चाहिए ? इससे वे अपने हिताहितके निर्णय करनेमें समर्थ हो सकते हैं । अतएव यह आप्त-परीक्षा आप्ताभासोंका निराकरण करने और सच्चे आप्तका स्वरूप प्रदर्शन करनेमें पूर्णतः समर्थ है । ___ तत्त्वार्थशास्त्रके शुरूमें जो 'मोक्षमार्गस्य' इत्यादि मंगलस्तोत्र शास्त्रकार (श्रीगद्धपिच्छाचार्य) ने रचा है और जो तीर्थके समान महान हैं तथा जिसपर ही स्वामी समन्तभद्रने अपनी आप्त-मीमांसा लिखी है उसी स्तोत्रके व्याख्यानस्वरूप विद्यानन्दने यह आप्त-परीक्षा रची है।
यह आप्त-परीक्षा मिथ्या वादोंका निराकरण तथा सत्यासत्य एवं हिताहितका निर्णय करने के लिये बनाई गई है, अपने अभिमानकी पुष्टि या ख्याति आदि प्राप्त करने के लिये नहीं, यही आप्त-परीक्षाके बनानेका मुख्य प्रयोजन अथवा उद्देश्य है।
टीका-पद्यों का अर्थ-'विद्यानन्दरूपी हिमाचलके मुखकमलसे निकली और अत्यन्त गम्भीर यह 'आप्तपरीक्षा-टीका' गंगाकी तरह चिरकाल तक पृथिवीमण्डलपर विजयी रहे-विद्यमान रहे ।
1. म 'कुविवादनिवृत्तये', स 'कुवादनि निवृत्तये', ५ 'विवादनिवृत्तये' ।
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