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कारिका ११५] अर्हत्कर्मभूभृत्भेतृत्व-सिद्धि
३२९ यथा पृथिव्यादेः रूपादि', आत्मगुणश्च धर्माधर्मसंज्ञकं कर्म परैरभ्युपगम्यते, इति न तत् आत्मनः पारतन्त्र्यनिमित्तं स्यात् ।
$ २९९. तत एव च "प्रधानविवर्तः शुक्लं कृष्णं च कर्म" [ ] इत्यपि मिथ्या, तस्यात्मपारतन्त्र्यनिमित्तत्वाभावे कर्मत्वायोगात्, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । प्रधानपारतन्त्र्यनिमित्तत्वात्तस्य कर्मत्वमिति चेत्, न, प्रधानस्य तेन बन्धोपगमे मोक्षपगमे च पुरुषकल्पनावैयर्थ्यात् । बन्धमोक्षफलानुभवनस्य पुरुष प्रतिष्ठानान्न पुरुषकल्पनावैयर्यमिति चेत, तदेतदसम्बद्धाभिधानम, प्रधानस्य बन्धमोक्षौ पुरुषस्तत्फलमनुभवतीति कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गात् । प्रधानेन हि कृतौ बन्धमोक्षी, न च तस्य तत्फलानुभवनमिति कृतनाशः, पुरुषेण तु तौ न कृतौ तत्फलानुभवनं च तस्येत्यकृताभ्यागमः कथं परिहतुं शक्यः ? पुरुषस्य चेतन..
आवेगा । प्रकट है कि जो जिसका गुण है वह उसकी परतन्त्रताका कारण नहीं होता, जैसे पृथिवी आदिके रूपादिगुण और आत्माका गुण धर्मअधर्मसंज्ञक अदृष्टरूप कर्मको नैयायिक और वैशेषिक स्वीकार करते हैं, इस कारण वह आत्माकी परतन्त्रताका कारण नहीं हो सकता है ।
$ २९९. जो यह प्रतिपादन करते हैं कि "प्रधानका परिणामरूप शुक्ल और कृष्ण दो प्रकारका कर्म है" [
] वह भी सम्यक् नहीं है, क्योंकि यदि वह आत्माको पराधीनताका कारण नहीं है तो वह कर्म नहीं हो सकता। अन्यथा अतिप्रसङ्ग दोष आवेगा। तात्पर्य यह कि यदि कर्म प्रधानका परिणाम हो तो वह आत्माको पराधीन नहीं कर सकता और जब वह आत्माको पराधीन नहीं कर सकता तो उसे कम नहीं कहा जा सकता। प्रसिद्ध है कि कर्म वही है जो आत्माको पराधीन बनाता है। यदि आत्माको पराधीन न बनानेपर भी उसे कर्म माना जाय तो जो कोई भी पदार्थ कर्म हो जायगा। यदि कहें कि वह प्रधानकी परतन्त्रताका कारण है और इसलिये प्रधानपरिणाम कर्म है तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि प्रधानके उससे बन्ध और मोक्ष मानें तो पुरुष ( आत्मा ) की कल्पना करना व्यर्थ है। अगर कहा जाय कि बन्ध और मोक्षके फलका अनुभवन पुरुषमें होता है, अतः पुरुषको कल्पना व्यर्थ नहीं है तो यह कथन भी सङ्गत नहीं है, क्योंकि प्रधान के बन्ध-मोक्ष मानने और पुरुषको उनका फलभोक्ता माननेपर कृतनाश और अकृतके स्वीकारका प्रसङ्ग आता है। प्रगट है कि प्रधानके .
1. मु स प 'रूपादिः'।
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