Book Title: Aptapariksha
Author(s): Vidyanandacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 457
________________ ३४४ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटोका [कारिका ११८ ज्ञानवैराग्यमात्रवत्, इति सिद्धोऽन्यथानुपपत्तिनियमः साधनस्य । ततो मोक्षमार्गस्य सम्यग्दर्शनादित्रात्मकत्वसिद्धिः । ३१७. परम्परया मोक्षमार्गस्य सम्यग्दर्शनमात्रात्मकत्वसिद्धेयभिचारी हेतुः, इति चेत्, न; साक्षादिति विशेषणात् । साक्षान्मोक्षमार्गत्वं हि सम्यग्दर्शनादित्रयात्मकत्वं न व्यभिचरति, क्षोणकषायचरमक्षण. वर्तिपरमार्हन्त्यलक्षणजीवन्मोक्षमार्ग इवेति सुप्रतीतम् । तथैवायोगकेवलिचरमक्षणत्तिकृत्स्नकर्मक्षयलक्षणमोक्षमार्गे साक्षान्मोक्षमार्गत्वं सम्यग्दर्श. यनका केवल ज्ञान और केवल आचरण । इस प्रकार हेतुमें अविनाभावरूप व्याप्तिका निश्चय सिद्ध है और इसलिये उससे मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शनादि तीनरूप सिद्ध होता है। ३१७. शङ्का-परम्परासे मोक्षमार्ग अकेला सम्यग्दर्शनरूप सिद्ध है और इसलिये हेतु उसके साथ व्यभिचारी है। तात्पर्य यह कि परम्परासे केवल सम्यग्दर्शनको भी मोक्षका मार्ग कहा गया है और इसलिये उपयुक्त हेतु उसके साथ अनैकान्तिक है ? ___ समाधान-नहीं, क्योंकि 'साक्षात्' यह हेतु में विशेषण दिया गया है। निश्चय ही 'साक्षात् मोक्षमार्गपना' सम्यग्दर्शनादि तीनरूपताका व्यभिचारी नहीं है, जैसे क्षीणकषाय नामक बारहवें गणस्थानके चरमसमयवर्ती परम आर्हन्त्यरूप जोवन्मोक्ष के मार्गमें वह सुप्रतीत है। उसी प्रकार अयोगकेवली नामक चउदहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें होनेवाले समस्त कर्मोंके नाशरूप मोक्षके मार्गमें वृत्ति 'साक्षात् मोक्षमार्गपना' सम्यग्दर्शनादि तीनरूपताका व्यभिचारी नहीं है, क्योंकि परमशुक्लध्यानरूप तपोविशेषका सम्यक्चारित्रमें समावेश होता है । तात्पर्य यह कि च उदहवें गुणस्थानके अन्तमें जो समस्त कर्मोका क्षयरूप मोक्ष प्रसिद्ध है उसके मार्गमें रहनेवाला साक्षात् मोक्षमार्गत्व सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनोंकी परिपूर्णताका अविनाभावी है। यही कारण है कि तेरहवें गुणस्थानमें परमशुक्लध्यानरूप तपोविशेषका अभाव रहनेसे वहाँके मोक्षमार्गमें सम्यग्दर्शनादि तीनोंकी परिपूर्णताका अभाव है। पर वह परमशुक्लध्यान, जो तपोविशेषरूप है और जिसका सम्यक्चारित्रने अत 1. मु स प 'हि' नास्ति । 2. म 'मार्गः', स 'मार्गो', द मोक्षमार्गी'। मुले संशोधितः पाठो निक्षिप्तः। -सम्पा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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