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कारिका १२१ ] अर्हत्वन्द्यत्व-सिद्धि
३४९. प्रणीतिः। यतश्च तस्या मोक्षमार्गप्रणोतेविना मोक्षमार्ग भावनाप्रकर्षपर्यन्तगमनेन सकलकर्मलक्षणकलुषप्रध्वंसजन्या अनन्तज्ञानादिलक्षणा स्वात्मलब्धिः परमनिर्वत्तिः कस्यचिन्न घटते तस्मात्तस्यै स्वात्मलब्धये यथोक्तायै त्वमेवाईन् परमगुरुरिह शास्त्रादौ वन्द्यः, क्षीणमोहत्वात्, करतलनिहितस्फटिकमणिवत्साक्षात्कृताशेषतत्त्वार्थत्वाच्च । न ह्यक्षीणमोहः साक्षादशेषतत्त्वानि द्रष्ट्र समर्थः, कपिलादिवत् । नापि साक्षादपरिज्ञाताशेषतत्त्वार्थी मोक्षमार्गप्रणीयते समर्थः । न च तदसमर्थः परमगरुरभिधात शक्यः, तद्वदेव । इति न मोहाक्रान्ता: परमनिःश्रेयसाथिभिरभिवन्दनीयाः ।
$३२४. कथमेवमाचार्यादयः प्रवन्दनीयाः स्युः ? इति चेत्, परमप्रणयन उससे सम्भव नहीं है । और उस (मोक्षमार्गप्रणयन) के बिना मोक्षमाग ( सम्यग्दानादि तीन ) की भावनाके प्रकर्षपर्यन्तको प्राप्त होनेसे सम्पूर्ण कर्मरूप पापोंके सर्वथा नाशसे उत्पन्न होनेवाली अनन्तज्ञानादिरूप आत्मस्वरूपकी प्राप्ति, जो परममोक्षरूप है, असम्भव है। इसलिये हे नाथ ! हे अर्हन् ! उस आत्मस्वरूपकी, जो पहले कहा जाचुका है, प्राप्तिके लिये, आप हो यथार्थ आप्तरूपसे यहाँ शास्त्रारम्भमें वन्दनीय हुए हैं, क्योंकि आप क्षीणमोह हैं-आपने मोहका सर्वथा नाश कर दिया है और हथेलीपर रखे हुए स्फटिकमणिकी तरह अशेष पदार्थों को साक्षात् जानते हैं। वास्तवमें जो अक्षोणमोह है-जिसने मोह (रागद्वेषाज्ञान) का नाश नहीं किया, जो उससे विशिष्ट है वह अशेष तत्त्वोंको साक्षात् जाननेदेखने में समर्थ नहीं है, जैसे कपिल वगैरह। और जो अशेष तत्त्वोंको साक्षात् नहीं जानता वह मोक्षमार्गके प्रणयन करने में समर्थ नहीं है । तथा जो मोक्षमार्गके प्रणयनमें असमर्थ है उसे परमगुरु (आप्त) नहीं कहा जासकता है, जैसे वही कपिल वगैरह। अतः जो मोहविशिष्ट हैं वे मोक्षाभिलाषियों द्वारा अभिवन्दनीय नहीं हैं।
$३२४. शंका-यदि ऐसा है तो आचार्यादिक वन्दनीय कैसे हो. सकेंगे?
1. मु 'मार्ग'। 2. द 'तत्त्वज्ञानादिलक्षणा' । स 'स्वलक्षणा' । 3. मु स प 'यथोक्तायै' नास्ति । 4. मु 'मोहाक्रान्तः' । 5. मु 'वन्दनीयः' ।
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