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कारिका ११३, ११४] अर्हत्कर्मभूभृत्भेतृत्व - सिद्धि
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पशमिकस्य होयमानतया प्रकृष्यमाणस्य प्रसिद्धस्य केवलिनि परमापकर्षसिद्धेः । क्षायिकस्य तु हानेरेवानुपलब्धेः कुतस्तत्प्रकर्षो येन व्यभिचारः शङ्कयते' ?
[ कर्मभूभृतां स्वरूपप्रतिपादनम् ]
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$ २९५. के पुनः कर्मभूभृतः येषां विपक्षः परमप्रकर्षभाक् साध्यते ? इत्यारे कायामिदमाह -
कर्माणि द्विविधान्यत्र द्रव्यभावविकल्पतः ।
द्रव्यकर्माणि जीवस्य पुद्गलात्मान्यनेकधा ॥ ११३॥ भावकर्माणि चैतन्यविवर्त्तात्मानि भान्ति नुः । क्रोधादीनि स्ववेद्यानि कथञ्चिचिदभेदतः ॥ ११४ ॥
की जाय । तात्पर्य यह कि जब उसकी हानि ही नहीं होती - एकबार हो जानेपर वह सदैव बना रहता है तब न उसकी हानिका प्रकर्ष है और न उसके साथ व्यभिचारकी शंका उत्पन्न हो सकती हैं। अतः उक्त हेतु पूर्णतः निर्दोष है और वह अपने अभिमत साध्यका साधक है ।
$ २९५. शंका - अच्छा, यह बतलाइये, कर्मपर्वत क्या हैं, जिनके विपक्षको आप परमप्रकर्षवाला सिद्ध करते हैं ?
समाधान - इसका उत्तर आगे तीन कारिकाओंमें कहते हैं
'कर्म दो प्रकारके हैं - १ द्रव्यकर्म और २ भावकर्म । जीवके जो द्रव्यकर्म हैं वे पौद्गलिक हैं और उनके अनेक भेद हैं ।'
' तथा जो भावकर्म हैं वे आत्माके चैतन्यपरिणामात्मक हैं, क्योंकि आत्मा से कथंचित् अभिन्नरूपसे स्ववेद्य प्रतीत होते हैं और वे क्रोधादि - रूप हैं ।'
1. सर्वासु प्रतिषु 'परमप्रकर्ष' पाठः । स चायुक्तः प्रतिभाति, केवलिनि क्षायोपशमिकस्य ज्ञानस्य प्रकर्षासम्भवात्, तस्यापकर्षस्तु सम्भवत्येव । अत एव मूले 'परमापकर्ष' इति पाठो निक्षिप्तः प्रमेयकमलमार्तण्डे ( पृ० २४५ ) ऽपि तथैव दर्शनात् । सम्पादक ।
मु स प 'शक्यते' स 'शंक्येत' ।
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