Book Title: Aptapariksha
Author(s): Vidyanandacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 433
________________ ३२० आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका १११ कर्मभूभृन्निरोधनिबन्धनत्वसिद्धेः, सम्यग्दर्शनादित्रयस्य चरमक्षणपरिप्राप्तस्य साक्षान्मोक्षहेतोस्तथाभिधानात् । पूर्वत्र गुणस्थाने तदभावात् । योगसद्भावात्सयोगकेवलिक्षीणकषायोपशान्तकषायगुणस्थाने । ततोऽपि पूर्वत्र' सक्षमसाम्परायानिवृत्तिवादरसाम्पराये चापूर्वकरणे चाप्रमत्ते च कषायविशिष्टयोगसद्भावात् । ततोऽपि पूर्वत्र प्रमत्तगुणस्थाने 'प्रमादकषायविशिष्टयोगनिर्णीतेः । संयतासंयतासंयत सम्यग्दृष्टिगुणस्थाने प्रमादकषायाविरतिविशिष्टयोगानां । ततोऽपि पूर्वस्मिन् गुणस्थानत्रये कषायप्रमादाविरतिमिथ्यादर्शनविशिष्टयोगसद्भावनिश्चयात् । योगो हि त्रिविधः कायादिभेदात्, "कायवाङ्मनःकर्म योगः" [ तत्त्वार्थसू० ६।१] इति सूत्रकारवचनात् । कायवर्गणालम्बनो ह्यात्मप्रदेशपरिस्पन्दः काययोगो वाग्वर्गणालम्बनो वाग्योगो मनोवर्गणालम्बनो मनोयोगः। ( पूर्णतः मन, वचन, कायके योगका रुकना ) समस्त कर्मरूपी पर्वतोंके निरोधका कारण है। इसीसे अन्तिमसमयवर्ती सम्यग्दर्शनादि तीनको साक्षात् मोक्षका कारण कहा गया है क्योंकि पूर्व के गुणस्थानों में उसका अभाव है। सयोगकेवली, क्षोणकषाय और उपशान्तमोह इन तोन गुणस्थानोंमें योगका सद्भाव है और उनसे भो पूर्व के सूक्ष्मसाम्पराय, अनिवृत्तिवादरसाम्पराय, अपूर्वकरण और अप्रमत्त इन चार गुणस्थानोंमें कषायविशिष्ट योग विद्यमान है। इनसे भी पहलेके प्रमत्तगुणस्थानमें प्रमाद और कषायविशिष्ट योग मौजूद है। संयतासंयत, और असंयतसम्यग्दृष्टि इन दो गुणस्थानोंमें प्रमाद, कषाय और अविरतिविशिष्ट योग पाया जाता है। तथा इनसे भी पहले मिश्र, सासादन और मिथ्यात्व इन तीन गुणस्थानोंमें कषाय, प्रमाद, अविरति और मिथ्यादर्शनविशिष्ट योगके सद्भावका निश्चय है। स्पष्ट है कि कायादिके भेदसे तीन प्रकारका योग है। सूत्रकारने भी कहा है-“काय, वचन और मनकी क्रियाको योग कहते हैं' [ तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६, सूत्र १ ] । कायवर्गणाके आश्रयसे जो आत्माके प्रदेशोंमें क्रिया होती है वह काययोग है, वचनवर्गणाके आश्रयसे जो आत्मप्रदेशोंमें परिस्पन्द होता है वह वचनयोग है और मनो 1. स 'गुणस्थाने' इत्यधिकः पाठः । 2. मुक 'कषाययोगविशिष्ट'। 3. मुक 'प्रमादकषाययोगनिर्णीते.'। 4. मु स 'असंयत' नास्ति । 5. मु क 'प्रमादकषायविशिष्टयोगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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