________________
३१८
आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका १११ व्रजन्नोपलब्धः। नापि कार्यकारणरूपतया बोजाङ्करसन्तानो वाऽनादिरपि प्रतिपक्षभूतदहनान्निर्दग्धबीजो निर्दग्धाङकुरो वा न प्रतीयत इति वक्तुं शक्यम्, यतः कर्मभूभृतां सन्तानोऽनादिरिपि क्वचित्प्रतिपक्षसास्मीभावान्न' प्रक्षीयते । ततो यथा शीतस्योष्णस्पर्शप्रकर्षविशेषण कश्चिद्भत्ता तथा कर्मभूभृतां तद्विपक्षप्रकर्षविशेषेण भेत्ता भगवान् विश्वतत्त्वज्ञ इति सुनिश्चितं नश्चेतः। ६ २९०. कः पुनः कर्मभूभृतां विपक्षः ? इति चेत्, उच्यतेतेषामागामिनां तावद्विपक्षः संवरो मतः । तपसा सञ्चितानां तु निर्जरा कर्मभूभृताम् ॥१११॥
अत्यन्त प्रकर्षको प्राप्त होनेपर समूल नष्ट नहीं हो जाता है अर्थात् सब जानते हैं कि वह अनादि होकर भी सर्वथा नष्ट हो जाता है। तथा न कोई यह कह सकता है कि कार्य-कारणरूपसे प्रवृत्त बीजांकुरकी अनादि सन्तान भी प्रतिपक्षी अग्निसे सर्वथा जला बीज और सर्वथा जला अंकुर प्रतीत नहीं होता। अपितु दोनों अनादि होकर भी जलकर खाक देखे जाते हैं, जिससे कर्मपर्वतोंको अनादि सन्तान भी किसी आत्मविशेषमें प्रतिपक्षीके आत्मीभाव ( पूर्णतः तद्रप हो जाने ) से नष्ट न हो। अतः जिस प्रकार शीतस्पर्शका उष्णस्पर्शके प्रकर्षविशेषसे कोई भेदक है उसी प्रकार कर्मपर्वतोंका उनके विपक्षी प्रकर्षविशेषसे भेत्ता भगवान् सर्वज्ञ है, इस प्रकार हमारे यहाँ कोई आपत्ति अथवा चिन्ताको बात नहीं हैआपत्ति अथवा चिन्ता उन्हींको होनी चाहिये जो अनादि कर्मोंका नाश असम्भव मानते हैं अर्थात् आप मीमांसकोंके लिये उपयुक्त शङ्कागत आपत्ति हैं, क्योंकि कर्मोंको आप आत्माका अनादि स्वभाव मानकर उन्हें अविनाशी मानते हैं।
$२९०. शंका-अच्छा तो यह बतलायें कि कर्मपर्वतोंका विपक्ष क्या है ?
समाधान-इसका उत्तर अगली कारिका द्वारा दिया जाता है:
'आगामी कर्मोंका विपक्ष संवर है और संचित कर्मपर्वतोंका तपसे होनेवाली निर्जरा विपक्ष है।'
1. द 'प्रतिपक्षतश्चात्मीभावा' ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org