Book Title: Aptapariksha
Author(s): Vidyanandacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 430
________________ कारिका ११०] अर्हत्कर्मभूभृत्भेतृत्व-सिद्धि ३१७ खादिवत्, सर्वत्र वस्तुसिद्धौ सुनिर्णीतासम्भवबाधकप्रमाणत्वमन्तरेणाश्वासनिबन्धनस्य कस्यचिदभावात् । स च विश्वतत्त्वानां ज्ञाताहन्नेव परस्येश्वरादेविश्वतत्त्वज्ञतानिराकरणादेवावसीयते। स एव कर्मभूभृतां भत्ता निश्चीयते, अन्यथा तस्य विश्वतत्त्वज्ञतानुपपत्तेः। [ अर्हतः कर्मभूभृत्भेतृत्वसाधनम् ] 5 २८९. स्यादाकूतम्-कर्मणां कार्यकारणसन्तानेन प्रवर्त्तमानानामनादित्वात्, विनाशहेतोरभावात्कथं कर्मभूभृतां भेत्ता विश्वतत्त्वज्ञोऽपि कश्चिद्व्यवस्थाप्यते ? इति; तदप्यसत् विपक्षप्रकर्षपर्यन्तगमनात्कर्मणां सन्तानरूपतयाऽनादित्वेऽपि प्रक्षयप्रसिद्धेः। न ह्यनादिसन्ततिरपि शीतस्पर्शः क्वचिद्विपक्षस्योष्णस्पर्शस्य प्रकर्षपर्यन्तगमनान्निमूलं प्रलयमुप बात यह है कि अमुक देशमें, अमक काल में और अमुक पूरुष सर्वज्ञ नहीं है यह तो हम भी स्वीकार करते हैं... इस भरतक्षेत्र में, पंचम कालमें, कोई पुरुष सर्वज्ञ नहीं है, यह आज भी हम मानते हैं। अतः सार्वत्रिक और सार्वकालिक सर्वज्ञका अभाव नहीं हो सकता है। और इसलिये देशविशेषादिकी अपेक्षासे उठनेवाली सर्वज्ञाभावको शंकाको अवकाश हो नहीं है। अतएव बाधकप्रमाणोंका अभाव अच्छी तरह निश्चित होनेसे सर्वज्ञ सिद्ध होता है, जैसे अपना सुख वगैरह। सब जगह वस्तुसिद्धि में सुनिर्णीत बाधकाभावको छोड़कर अन्य कोई वस्तुस्थितिका प्रसाधक नहीं हैसंवादजनक नहीं है । और वह सर्वज्ञ अर्हन्त ही सुज्ञात होता है-सुनिर्णीत होता है, क्योंकि अन्य ईश्वरादिकके सर्वज्ञताका निराकरण है। तथा अर्हन्त हो कर्मपर्वतोंका भेदक निश्चित होता है, अन्यथा वह सर्वज्ञ नहीं बन सकता है। $ २८९. शंका-चुंकि कर्म कार्य-कारणप्रवाहसे प्रवर्त्तमान हैं, इसलिये वे अनादि हैं। अतः उनका विनाशक कारण न होनेसे कर्म-पर्वतोंका कोई सर्वज्ञ भी भेदक कैसे व्यवस्थापित किया जा सकता है। अर्थात् कोई सर्वज्ञ हो भी पर वह कर्म-पर्वतों का नाशक नहीं हो सकता है ? समाधान-यह शंका भी ठीक नहीं है, क्योंकि अरहन्तके विपक्षियोंका प्रकर्ष जब चरम सीमाको प्राप्त हो जाता है तब कर्मोंका प्रवाहरूपसे अनादि होनेपर भी सर्वथा नाश हो जाता है। यह कौन नहीं जानता कि सन्तानकी अपेक्षा अनादि शीतस्पर्श भी कहीं विपक्षी उष्णस्पर्शके 1. म 'परमेश्वरादे'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476