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कारिका ११०] अर्हत्सर्वज्ञ-सिद्धि
३१५ प्रमाणम्, तदा तेनैव' मिथ्यैकान्तस्याभावसाधनाय प्रवर्त्तमानं प्रमाणं बाध्यते, इति स्याद्वादिनामपि स्वेष्टबाधनम् । यदि पुनरप्रमाणं पराभ्युपगमः, तदाऽपि ततः सिद्धस्य मिथ्यकान्तस्य स्मर्यमाणस्य नास्तीति, ज्ञानं प्रजायमानं मिथ्यैव स्यादिति तदेव स्वेष्टबाधनं परेषामिवेति न मन्तव्यम्, स्याद्वादिनामनेकान्तसिद्धेरेव मिथ्यकान्तनिषेधनस्य व्यवस्थानात् । प्रमाणतः प्रसिद्ध हि बहिरन्तर्वस्तुन्यनेकान्तात्मनि तत्राध्यारोप्यमाणस्य मिथ्यैकान्तस्य दर्शनमोहोदयाकुलितचेतसां बुद्धौ विपरीताही मिथ्या एकान्तका अभाव सिद्ध करनेके लिये प्रवृत्त हुआ प्रमाण बाधित हो जाता है और इस तरह स्याद्वादियोंके भी अपने इष्ट की बाधाका दोष आता है। यदि आप यह कहें कि एकान्तवादियोंका स्वीकार अप्रमाण है तो उस हालतमें भी उससे सिद्ध एवं स्मरण किये गये मिथ्या एकान्तका 'नहीं है' इसप्रकारका उत्पन्न हुआ ज्ञान मिथ्या ही होगा और इसतरह वही अपने इष्टकी बाधाका दोष हमारी तरह आपके भी है ?
समाधान-आपकी यह मान्यता ठीक नहीं है, इस स्याद्वान्दो अनेकान्तकी सिद्धिसे ही मिथ्या एकान्तके प्रतिषेधको व्यवस्था करते हैं। निश्चय ही बाह्य और अन्तरङ्ग वस्तु प्रमाणसे अनेकान्तात्मक प्रसिद्ध है उसमें अध्यारोपित मिथ्या एकान्तका, जो दर्शनमोहके उदयसे आकुलित ( चलरूप परिणामको प्राप्त ) चित्तवालोंको बुद्धि में कदाग्रहसे प्रतिभासमान होता है, निषेध करते हैं अथवा प्रतिषेधका व्यवहार प्रवर्तित होता है, क्योंकि गैरसमझको समझानेके लिये सम्यक् नयका प्रयोग किया जाता है-सर्वथा एकान्तका प्रतिषेध करके कथंचित् एकान्तका प्रदर्शन किया जाता है। तात्पर्य यह कि समस्त पदार्थ स्वभावतः अनेकान्तमय हैं। जो लोग मिथ्यात्वजन्य हठाग्रहसे उनमें एकान्तका आरोप करते हैं उन्हें समझाया जाता है कि वस्तु अनेकधर्मात्मक है जो अपने स्वरूपादि चतुष्टयसे सत्रूप है वही पररूपादिचतुष्टयसे असत्रूप है, जो द्रव्यकी अपेक्षासे नित्य है वही पर्यायकी अपेक्षासे अनित्य है। इसी तरह वह एक-अनेक आदिरूप भी है, इसप्रकार वस्तु अनेकान्तरूप है-उसे एकान्तरूप-केवल सत् ही, केवल नित्य ही, केवल अनित्य ही, केवल एक ही, केवल अनेक ही आदिरूप न मानो, इसतरह प्रमाणतः सिद्ध अनेकान्तात्मक वस्तुमें मिथ्या अज्ञानसे अध्यारोपित एकान्तोंका निषेध
1. व 'तव'। 2. मु स प 'बहिरन्तर्वा वस्तु' ।
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