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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ११० भिनिवेशस्य प्रतिभासमानस्य प्रतिषेधः क्रियते, प्रतिषेधव्यवहारो वा प्रवर्तते, विप्रतिपन्नप्रत्यायनाय सन्नयोपन्यासात् । न चैवमसर्वज्ञजगसिद्धेरेव सर्वज्ञप्रतिषेधो युज्यते, तस्याः कुतश्चित्प्रमाणादसम्भवस्य समर्थनात् ।
$ २८८. तदेवमभावप्रमाणस्थापि सर्वज्ञबाधकस्य सदुपलम्भकप्रमाणपञ्चकवदसम्भवात् । देशान्तरकालान्तरपुरुषान्तरापेक्षयाऽपि तदबाधकशङ्कानवकाशासिद्धः सुनीतासम्भवबाधकप्रमाणः सर्वज्ञः स्वसुकिया जाता है और इसलिये मिथ्या एकान्तका निषेध करनेमें हमारे लिये कोई बाधादिदोष नहीं आता।
शंका-इस प्रकार असर्वज्ञ जगतकी सिद्धि होनेसे ही सर्वज्ञका प्रतिषेध किया जा सकता है ? तात्पर्य यह कि हम मीमांसक भी यह कह सकते हैं कि प्रमाणसे असर्वज्ञ ( सर्वज्ञरहित ) जगत् सिद्ध है और सर्वज्ञवादियोंद्वारा कल्पना किये गये सर्वज्ञका हम उसमें निषेध करते हैं । अतएव हमारे यहाँ भी सर्वज्ञका निषेध करने में उक्त दोष नहीं है ।
समाधान-नहीं; क्योंकि असर्वज्ञ जगतकी सिद्धि किसी प्रमाणसे समर्थित नहीं होती है। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार प्रत्यक्षादि प्रमाणसे वस्तुमें अनेकान्त सिद्ध है उस प्रकार प्रत्यक्षादि प्रमाणसे जगत् असर्वज्ञ सिद्ध नहीं है, इस बातको हम पहले कह आये हैं। अतः आपके यहाँ सर्वज्ञका निषेध नहीं बन सकता और इसलिये उपयुक्त बाधादि दोष तदवस्थ हैं।
२८८. इस प्रकार सत्ताके साधक पाँच प्रमाणोंकी तरह अभावप्रमाण भी सर्वज्ञका बाधक असम्भव है अर्थात् उससे भी सर्वज्ञका निषेध नहीं किया जा सकता है। और इस तरह भाटोंके भी प्रत्यक्षादि छहों प्रमाण सर्वज्ञके बाधक सिद्ध नहीं होते हैं। दूसरे देश, दूसरे काल और दूसरे पुरुषकी अपेक्षासे भी अभावप्रमाण सर्वज्ञका बाधक नहीं हो सकता है, क्योंकि उस हालतमें किसी देश, किसी काल और किसी पुरुषको अपेक्षासे सर्वज्ञका अभ्युपगम अवश्यम्भावी है। तात्पर्य यह कि देशविशेषादिकी अपेक्षा अभावप्रमाणको सर्वज्ञका बाधक कहा जाय तो दूसरे देशादिविशेष में उसका अस्तित्व स्वीकार करना अनिवार्य होगा और इस तरह सर्वत्र सर्वदा और सब पुरुषों में सर्वज्ञका अभाव नहीं बनता। दूसरी
1. द 'विप्रतिपत्तिप्रत्याय' । 2. द 'प्रसज्यते' ।
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