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कारिका ९१ ]
अर्हत्सर्वज्ञ-सिद्धि
२७९
प्रत्यक्ष सामान्यतोऽर्हत्प्रत्यक्षत्वसाधनात् । सिद्धे चान्तरिततत्त्वानां सामान्यतोऽर्हत्प्रत्यक्षत्वे धर्मादिसाक्षात्कारिणः प्रत्यक्षस्य सामर्थ्यादतीन्द्रियप्रत्यक्षत्वसिद्धेः । तथा दृष्टान्तस्य साध्यवैकल्यदोषानवकाशात् । कथमन्यथाऽभिप्रेतानुमानेऽप्ययं दोषो न भवेत् ?
S २५४ तथा हि-नित्यः शब्दः प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् पुरुषवदिति । अत्र कूटस्थनित्यत्वं साध्यते कालान्तरस्थायिनित्यत्वं वा ? प्रथमकल्पनायामप्रसिद्ध विशेषणः पक्षः, कटस्थनित्यत्वस्य क्वचिदन्यत्राप्रसिद्धः, तत्र प्रत्यभिज्ञानस्यैवासम्भवात्पूर्वापरपरिणामशून्यत्वात्प्रत्यभिज्ञानस्य पूर्वोत्तरपरिणामव्यापिन्येकत्र वस्तुनि सद्भावात् । पुरुषे च कूटस्थनित्यत्वस्य साध्यस्याभावात्तस्य सातिशयत्वात्साध्यशून्यो दृष्टान्तः । द्वितीयकल्पनायां तु स्वमतविरोधः, शब्दे कालान्तरस्थायिनित्यत्वस्यानभ्युपगमात् ।
प्रत्यक्ष असिद्ध है - वे उसे नहीं मानते हैं ?
समाधान- यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि हम प्रत्यक्षसामान्यसे अन्तरित पदार्थोंको अर्हन्तके प्रत्यक्ष सिद्ध करते हैं और उनके सामान्यसे अर्हन्तकी प्रत्यक्षता सिद्ध हो जानेपर उस ( धर्मादिका साक्षात्कार करनेवाले) प्रत्यक्षको सामर्थ्य ( अर्थापत्तिप्रमाण ) से अतीन्द्रियप्रत्यक्ष प्रमाणित करते हैं । तथा दृष्टान्त में साध्यविकलताका दोष भी नहीं आता । अन्यथा आपके इष्ट अनुमानमें भी यह दोष क्यों नहीं आवेगा ? उसमें भी यह दोष आये बिना नहीं रह सकता । सो ही देखिये
$ २५४. ' शब्द नित्य है क्योंकि वह प्रत्यभिज्ञानका विषय है, जैसे पुरुष ( आत्मा ) ।' यह शब्दको नित्य सिद्ध करनेके लिये आप ( मीमांसकों ) का प्रसिद्ध अनुमान है। हम आपसे पूछते हैं कि यहाँ शब्दको कूटस्थ नित्य सिद्ध किया जाता है ? अथवा दूसरे कालतक ठहरनेवाला नित्य ? पहलो कल्पना यदि स्वीकार की जाय तो पक्ष अप्रसिद्धविशेषण है, क्योंकि कूटस्थनित्यता किसी दूसरी जगह प्रसिद्ध नहीं है, उसमें प्रत्यभिज्ञान ही सम्भव नहीं है । कारण, कूटस्थनित्य पूर्व और उत्तर परिणामोंसे रहित है और प्रत्यभिज्ञान पूर्व तथा उत्तर परिणामों में व्याप्त एक वस्तुमें होता है । तथा पुरुषमें कूटस्थनित्यतारूप साध्यका अभाव है क्योंकि वह सातिशयपरिणामी नित्य है और इसलिये दृष्टान्त साध्यविकल है । अगर दूसरी कल्पना मानी जाय तो आपके मतका विरोध आता है, क्योंकि
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