Book Title: Aptapariksha
Author(s): Vidyanandacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 418
________________ कारिका ११०] अर्हत्सर्वज्ञ-सिद्धि ३०५ निश्चयायोगात् । स हि वेदः केनचिद्वयाख्यातो धर्मस्य प्रतिपादकः स्याद व्याख्यातो वा ? प्रथमपक्षे तयाख्याता रागदिमान् वीतरागो वा ? रागादिमांश्चेत्, न तद्वयाख्यानाद्वेदार्थनिश्चयः, तदसत्यत्वस्य सम्भवात् । व्याख्याता हि रागाद् द्वेषादज्ञानाद्वा वितथार्थमपि व्याचक्षाणो दृष्ट इति वेदार्थं वितथमपि व्याचक्षीत, अवितथमपि व्याचक्षीत, नियामकाभावात् । गुरुपूर्वक्रमायातवेदार्थवेदी महाजनो नियामक इति चेत्, न, तस्यापि रागादिमत्वे यथार्थवेदित्वनिर्णयानुपपत्तेः, गुरुपूर्वक्रमायातस्य वितथार्थस्यापि वेदे सम्भाव्यमानत्वादुपनिषद्वाक्यार्थवदीश्वराद्यर्थवाद. धर्मादिके उपदेशका अभाव सिद्ध ही है ? समाधान-नहीं, क्योंकि अपौरुषेय वेदसे धर्मादिके उपदेशका निश्चय असम्भव है अर्थात् अपौरुषेय वेदसे धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थोंका उपदेश नहीं बन सकता। हम पूछते हैं कि वह अपौरुषेय वेद किसीके द्वारा व्याख्यात ( व्याख्यान किया गया ) होकर धर्मका प्रतिपादक है अथवा अव्याख्यात ( व्याख्यान न किया गया ) ? यदि पहला पक्ष लें तो यह बतायें कि उसका व्याख्याता रागादिदोषयुक्त है अथवा रागादिदोषसे रहित ? यदि रागादिदोषयुक्त है तो उसके व्याख्यानसे वेदार्थका निश्चय ( निर्णय ) नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें असत्यपना सम्भव है। स्पष्ट है कि व्याख्याता रागसे, द्वेषसे अथवा अज्ञानसे मिथ्या अर्थको भी व्याख्यान करते हुए देखे जाते हैं और इसलिये वे वेदके अर्थको मिथ्या भी व्याख्यान कर सकते हैं और सम्यक भी व्याख्यान कर सकते हैं, क्योंकि कोई नियामक नहीं है अर्थात् ऐसा कोई विनिगमक नहीं है कि वे रागादिमाय व्याख्याता वेदार्थका सम्यक् ही व्याख्यान करेंगे, मिथ्या नहीं। शंका-गुरु परम्पराके क्रमसे चले आये वेदके अर्थको जाननेवाला महाजन ( विशिष्टपुरुष ) वेदार्थके व्याख्यानमें नियामक है और इसलिये वेदार्थव्याख्याता वेदार्थका सम्यक ही व्याख्यान करते हैं, मिथ्या नहीं ? समाधान-नहीं, क्योंकि वह महाजन भी यदि रागादिदोषयुक्त है तो वह वेदार्थको याथार्थ जानने वाला है, यह निर्णय नहीं हो सकता। कारण, गुरुपरम्पराके क्रमसे चला आया मिथ्या अर्थ भी वेदमें सम्भव है, 1. द 'दयाव्याख्या। 2. मु स 'विरागो'। 3. द 'अवितथमपि व्याचक्षीत' पाठो नास्ति । 4. म स 'श्वराद्यर्थवद्वा' । २० For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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