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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ११०. इत्युपमान कर्तु मुत्सहते जात्यन्ध इव दुग्धस्य वकोपमानम्। तत्साक्षाकरणे वा स एव सर्वज्ञ इति कथमुपमानं तदभावसाधनायालम् ?
[अर्थापत्तेः सर्वज्ञाबाधकत्वप्रतिपादनम् ] $ २७९. तथाऽर्थापत्तिरपि न सर्वज्ञरहितं जगत्सर्वदा साधयितुं क्षमा, क्षीणत्वात्, तस्याः साध्याविनाभावानयमाभावात् । 'सर्वज्ञेन रहितं जगत् तत्कृतधर्माद्युपदेशासम्भवान्यथानुपपत्तेः' इत्यार्थापत्तिरपि न साधीयसी, सर्वज्ञकृतधर्माद्य पदेशासम्भवस्यार्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्य प्रत्यक्षाद्यन्यतमप्रमाणेन विज्ञातुमशक्तेः ।
$ २८०. नन्वपौरुषेयावदादेव धर्माद्य पदेशसिद्धः, “धर्मे चोदनैव प्रमाणम्" [ ] इति वचनात्, न धर्मादिसाक्षात्कारी कश्चित्पुरुषः सम्भवति यतोऽसौ धर्माधु पदेशकारी स्यात् । ततः सिद्ध एव सर्वज्ञकृतधर्माद्य पदेशासम्भव इति चेत; न; वेदादपौरुषेयाद्धर्माद्य पदेश
असर्वज्ञ हैं, जैसे इस काल और इस देशवर्ती हम समस्त लोग।' और यदि वह उन सबको प्रत्यक्ष जानता है तो वही सर्वज्ञ है और उस दशामें उपमानप्रमाण उसका अभाव सिद्ध करने में कैसे समर्थ है ? अर्थात् नहीं है। ___२७९. तथा अर्थापत्ति भी जगतको हमेशा सर्वज्ञरहित सिद्ध नहीं कर सकती, क्योंकि वह क्षीण है-अशक्त है और अशक्त इसलिये है कि उसकी साध्यके साथ अविनाभावरूप व्याप्ति नहीं है। 'संसार सर्वज्ञसे रहित है, क्योंकि यदि सर्वज्ञ हो तो सर्वज्ञकृत धर्मादिके उपदेशका अभाव नहीं हो सकता' इस प्रकारकी अर्थापत्ति भी साधक नहीं है। कारण, सर्वज्ञकृत धर्मादिके उपदेशका अभाव, जो अर्थापत्तिका जनक (उत्थापक) है, प्रत्यक्षादिक प्रमाणों में से किसी एक भी प्रमाणसे जाना नहीं जा सकता। अर्थात् यह किसी भी प्रमाणसे प्रतीत नहीं है कि सर्वज्ञकृत अतीन्द्रिय धर्मादि पदार्थों का उपदेश नहीं है।
$ २८०. शंका-औपुरुषेय वेदसे ही धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थोंका उपदेश प्रसिद्ध है, क्योंकि "धर्मके विषयमें वेद ही प्रमाण है" [ ] ऐसा कहा गया है और इसलिये कोई पुरुष धर्मादिका प्रत्यक्षदृष्टा सम्भव नहीं है जिससे वह धर्मादिका उपदेश करनेवाला हो। अतः सर्वज्ञकृत .
1. द 'जगत्त्रयं' । 2. द 'नोदनव' ।
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