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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ९४ प्रमाणेन, तद्वयवस्थापनविरोधात् । करणज्ञानं च प्रत्यक्षतः कर्मत्वेनाप्रतीयमानमपि घटाद्यर्थपरिच्छित्त्यन्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानं न सर्वथाऽप्यप्रमेयम्; "ज्ञाते त्वनुमानादवगच्छति बुद्धिम" [शावरभाष्य १-१-५ ] इति भाष्यकारशवरवचनविरोधात् । फलज्ञानं च प्रमितिलक्षणं स्वसंवेदनप्रत्यक्षमिच्छत कार्यानुमेयं च कथमप्रमेयं सिद्धयेत् ।
२५९. एतेन करणज्ञानस्य फलज्ञानस्य च परोक्षत्वमिच्छतोऽपि भट्टस्यानुमेयत्वं सिद्धं बोद्धव्यम, घटाद्यर्थप्राकटयनानुमीयमानस्य सर्वस्य ज्ञानस्य कथञ्चित्प्रमेयत्त्वसिद्धेः। ततो नान्तरिततत्वेषु धर्मिषु प्रमेयत्वं साधनमसिद्धम्, वादिन इव प्रतिवादिनोऽपि कथञ्चित्तत्र प्रमेयत्वसिद्धेः सन्दिग्धव्यतिरेकमप्येतन्न भवतीत्याहप्रत्यक्षद्वारा कर्मरूपसे आत्मा प्रतीत नहीं होता, यह प्रभाकरका दर्शन है, न कि सब प्रमाणोंसे भी वह प्रतीत नहीं होता, यह उसका दर्शन है, अन्यथा आत्माकी व्यवस्था नहीं बन सकेगी। इसी तरह करणज्ञान प्रत्यक्षसे कर्मरूपसे प्रतीत न होनेपर भी 'घटादि पदार्थों की ज्ञप्ति उसके बिना नहीं हो सकती है। इस अनुमानसे वह अनुमित ( ज्ञात ) होता है
और इसलिये सर्वथा वह भी अप्रमेय नहीं है, अन्यथा ज्ञात होकर प्रमाता ज्ञातता-अनुमानसे बुद्धि ( करणज्ञान ) को जानता है' [शावरभा. ११११५] इस भाष्यकार शबरके वचनका विरोध आवेगा तथा प्रमितिरूप फलज्ञानको प्रभाकर स्वसंवेदन प्रत्यक्ष और अर्थक्रियारूप अनुमानसे गम्य मानते हैं और इसलिये वह भी अप्रमेय कैसे रह सकता है ? तात्पर्य यह कि प्रमाता-आत्मा, प्रमिति-फलज्ञान और करणज्ञान ये तीनों भी प्रमाणके विषय होनेसे प्रमेय हैं। अतः उनमें प्रमेयपना हेतु भागासिद्धि नहीं हैवह उनमें भी रहता है।
६२५९. इस कथनसे करणज्ञान और फलज्ञानको परोक्ष माननेवाले भटके भी अनुमेयपना हेतु सिद्ध समझना चाहिये; क्योंकि घटादि पदार्थोंकी प्रकटतासे सभी ज्ञान अनुमित होनेसे उनमें कथंचित् प्रमेयपना सिद्ध है। अतः धर्मीरूप अन्तरित पदार्थों में प्रमेयपना हेतु असिद्ध नहीं है क्योंकि वादीकी तरह प्रतिवादीके भो कथंचित् प्रमेयपना उनमें सिद्ध है ।
अब आगे यह बतलाते हैं कि प्रमे अपना हेतु सन्दिग्धव्यतिरेक भी नहीं है
1. द 'मानेन सर्वथाऽस्य प्रमेयत्वं ज्ञानत्वे' इति पाठः । १. भाट्ट और प्रभाकर करणरूप ज्ञानको परोक्ष मानते हैं और उससे उत्पन्न
प्रत्यक्षात्मक ज्ञाततासे उसका अनुमान करते हैं।
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