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कारिका ११० ]
अर्हत्सर्वज्ञ-सिद्धि
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वा स्यात् ? न तावत्सामान्यतो वक्तृत्वेन सर्वज्ञत्वं विरुद्धयते, ज्ञानप्रकर्षे वक्तृत्वस्यापकर्षप्रसङ्गात् । यदि येन विरुद्धं तत्प्रकर्षे तस्यापकर्षो दृष्टः, यथा पावकस्य प्रकर्षे तद्विरोधिनो हिमस्य । न च ज्ञानप्रकर्षे वक्तृत्वस्यापकर्षो दृष्टस्तस्मान्न तत् तद्विरुद्धं वक्ता च स्यात्सर्वज्ञश्च स्यादिति सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिको हेतुनं सर्वज्ञाभावं साधयेत् । यदि पुनर्वक्तृत्त्वविशेषण सर्वज्ञ [ त्व]स्य विरोधोऽभिधीयते, तदा हेतुरसिद्ध एव । न हि परमात्मनो युक्तिशास्त्रविरुद्धो वक्तृत्त्वविशेषः सम्भवति । यः " सर्वज्ञविरोधी' तस्य युक्तिशास्त्राविरुद्धार्थवक्तृत्वानिश्चयात् । न च युक्तिशास्त्राविरोधि वक्तृत्वं ज्ञानातिशयमन्तरेण दृष्टम् । ततः सकलार्थविषयं वक्तृत्वं युक्तिशास्त्राविरोधि सिद्धयत् सकलार्थवेदित्वमेव
साथ जो विरोध है वह सामान्यसे है अथवा विशेषसे ? सामान्यसे तो सर्वज्ञताका वक्तापन के साथ विरोध नहीं है, क्योंकि ज्ञानके बढ़नेपर वक्ता पनकी हानिका प्रसङ्ग आयेगा । प्रकट है कि जिसका जिसके साथ विरोध है उसके प्रकर्ष होने ( बढ़ने ) पर उसको हानि देखी गई है, जैसे अग्नि के बढ़ने पर उसके विरोधो ठण्डको हानि देखो जाती है । लेकिन ज्ञानके बढ़ने पर वक्तापनकी हानि नहीं देखो जाती । इस कारण वक्तापन सर्वज्ञताका विरोधी नहीं है । अतएव वक्ता भी हो और सर्वज्ञ भी हो, कोई विरोध नहीं है और इसलिये यह वक्तापन हेतु संदिग्धविपक्षवृत्ति है -विपक्ष से उसकी व्यावृत्ति सन्दिग्ध है | अतः वह सर्वज्ञका अभाव सिद्ध नहीं करता । यदि वक्तापनविशेषके साथ सर्वज्ञताका विरोध कहें तो हेतु असिद्ध है । सष्ट है कि सर्वज्ञके युक्तिशास्त्रविरोधी वक्तापनविशेष सम्भव नहीं है । जो वक्तापनविशेष सर्वज्ञताका विरोधी है वह युक्ति - शास्त्राविरोधो वक्तापन नहीं है । और युक्तिशास्त्राविरोधी वक्तापन विशिष्ट ज्ञानके बिना देखा नहीं गया । अतःसर्वज्ञका जो समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाला वक्तापन है वह युक्ति -- शास्त्राविरोधी सिद्ध होता हुआ उसकी सर्वज्ञताको ही सिद्ध करता है और इसलिए ऐसा वक्तापनविशेष यदि हेतु हो तो वह विरुद्ध हेत्वा
१. वक्तृत्व विशेषः ।
1. व 'यस्य सर्वज्ञविरोधि' ।
2. मु प स ' युक्तिशास्त्र | विरुद्धार्थ वक्तृत्वनिश्चयात्' इति पाठः । स चासङ्गतः । मूले व प्रतेः पाठो निक्षिप्तः ।
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