________________
२९२
आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ९६ प्रत्यक्षत्वसिद्धेः । तथा हि-विवादाध्यासितमहत्प्रत्यक्षं मुख्यम्, निःशेषद्रव्यपर्यायविषयत्वात् । यन्न' मुख्यं तन्न तथा, यथाऽस्मदादिप्रत्यक्षम्, सर्वद्रव्यपर्यायविषयं चाहत्प्रत्यक्षम्, तस्मान्मुख्यम् । न चेदमसिद्धं साधनम्। तथा हि-सर्वद्रव्यपर्यायविषयमहत्प्रत्यक्षम्, क्रमातिक्रान्तत्वात। क्रमातिक्रान्तं तत, मनोऽक्षानपेक्षत्वात । मनोऽक्षानपेक्षं तत, सकलकलङ्कविकलत्वात् । सकलाप्रशमाज्ञानादर्शनावीर्यलक्षणकलङ्कविकलं तत्, प्रक्षीणत कारणमोह-ज्ञानदर्शनावरण-वीर्यान्तरायत्वात् । यन्नेत्थं तन्नेत्थम् , यथाऽस्मदादिप्रत्यक्षम्, इत्थं च तत्, तस्मादेवमिति हेतुसिद्धिः।
$ २६८. ननु च प्रक्षीणमोहादिचतुष्टयत्वं कुतोऽर्हतः सिद्धम् । तत्काभिन्न अर्थवाला है और समस्त पदार्थोको विषय करनेसे वह मुख्य प्रत्यक्ष सिद्ध होता है। वह इस प्रकार है :-विचारकोटिमें स्थित अर्हन्तप्रत्यक्ष मुख्य प्रत्यक्ष है, क्योंकि वह अशेष द्रव्य और पर्यायोंको विषय करता है। जो मुख्य प्रत्यक्ष नहीं है वह अशेष द्रव्य और पर्यायोंको विषय नहीं करता, जैसे हम लोगों आदिका प्रत्यक्ष और अशेष द्रव्य और पर्यायोंको विषय करनेवाला अर्हन्तप्रत्यक्ष है, इस कारण वह मुख्य प्रत्यक्ष है। यहाँ जो. 'अशेषद्रव्य और पर्यायोंको विषय करनेवाला' रूप हेतु दिया गया है. वह असिद्ध नहीं है। वह भी इस प्रकारसे है-अर्हन्तप्रत्यक्ष अशेष द्रव्य
और पर्यायोंको विषय करनेवाला है, क्योंकि वह क्रमरहित है। और वह क्रमरहित इसलिये है कि उनमें मन तथा इन्द्रियोंकी अपेक्षा नहीं है । तथा मन और इन्द्रियोंकी अपेक्षा भी इसलिये नहीं है कि वह समस्त दोषरहित है। और समस्त मिथ्यात्व, अज्ञान, अदर्शन और अवीर्यरूप, दोषोंसे रहित भी वह इस लिये है कि उसके मिथ्यात्व आदिके कारणभूत मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय इन चार कर्मोंका नाश हो चुका है। जो ऐसा । मिथ्यात्वादिदोष रहित ) नहीं है वह वैसा (मोहादिकर्म रहित ) नहीं है, जैसे हम लोगों का आदिका प्रत्यक्ष । और मोहादिकर्मरहित विचारस्थ अर्हन्तप्रत्यक्ष है, इस कारण वह समस्त दोषरहित है, इस तरह उक्त हेतु सिद्ध है।
२६८. शंका-अर्हन्तके मोहादि चार कर्मोका नाश कैसे सिद्ध है। 1. मु स 'यत्तु न' । 2. मु स 'तत्' पाठो नास्ति । 3. मु स 'तन्नवम्' ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org