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कारिका १०३ - १०६ ] अर्हत्सर्वज्ञ- सिद्धि
नागमोऽपौरुषेयोऽस्ति सर्वज्ञाभावसाधनः ।
तस्य कार्ये प्रमाणत्वादन्यथाऽनिष्टसिद्धितः ॥ १०३ ॥ पौरुषेयोऽप्य सर्वज्ञ प्रणीतो
नास्य बाधकः । तत्र तस्याप्रमाणत्वाद्धर्मादाविव तत्त्वतः ॥ १०४ ॥ अभावोऽपि प्रमाणं ते निषेध्याधारवेदने । निषेध्यस्मरणे च स्यान्नास्तिताज्ञानमञ्जसा ॥ १०५ ॥ चाशेषजगज्ज्ञानं कुतश्चिदुपपद्यते । नापि सर्वज्ञसंवित्तिः पूर्वं तत्स्मरणं कुतः ॥ १०६॥
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'अर्थापत्ति भी जगतको सर्वज्ञशून्य सिद्ध करनेमें समर्थ नहीं है, क्योंकि वह क्षोण है - अशक्त है और अशक्त इसलिये है कि उसका साध्यके साथ अन्यथाभाव ( साध्यके बिना साधनका अभाव ) रूप अविनाभाव निश्चित नहीं है और इसलिये अर्थापत्ति भी सर्वज्ञकी बाधक नहीं है ।'
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'जो अपौरुषेय आगम है वह भी सर्वज्ञके अभावका साधक नहीं है; क्योंकि वह यज्ञादि कार्यमें ही प्रमाण है और यही मीमांसकोंको इष्ट है, -अन्यथा अनिष्टसिद्धिका प्रसङ्ग आवेगा ।'
'और जो पौरुषेय आगम है वह भी यदि असर्वज्ञपुरुषरचित है तो वह · सर्वज्ञका बाधक नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञसिद्धिमें वह अप्रमाण है, जैसे धर्मादिमें वह अप्रमाण माना जाता है और सर्वज्ञपुरुषरचित आगम तो मीमांसकों को न मान्य है और न वह सर्वज्ञका बाधक कहा जा सकता है प्रत्युत वह उसका साधक ही है ।'
'अभाव प्रमाण भी सर्वज्ञका बाधक नहीं है, क्योंकि जहाँ निषेव्यका निषेध ( अभाव ) करना होता है उसका ज्ञान होनेपर और जिसका निषेध - करना होता है उसका स्मरण होनेपर ही नियमसे 'नहीं है' ऐसा ज्ञान अर्थात् अभावप्रमाण प्रवृत्त होता है ।'
'लेकिन न तो किसी प्रमाणादिसे समस्त संसारका ज्ञान सम्भव है जहाँ सर्वज्ञका निषेध करता है और न ही सर्वज्ञका पहले ज्ञान है-अनुभव है तब उसका स्मरण कैसे हो सकता है ? क्योंकि अनुभवपूर्वक ही - स्मरण होता है और सर्वज्ञाभाववादीको सर्वज्ञका पहले कभी भी अनुभव नहीं है, अतः सर्वज्ञका स्मरण भी नहीं बनता है ।'
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